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१५२ : जैन तत्त्वकलिका-द्वितीय कलिका
प्रकार जिनोक्त वचनों पर सम्यग्दर्शनसम्पन्न व्यक्ति विश्वास एवं श्रद्धा रखकर चलता है। वह जानता और मानता है कि वीतराग सर्वज्ञ आप्त पुरुष हैं, वे कभी न्यूनाधिक नहीं कह सकते, न ही किसी को विपरीत व असत्य कह सकते हैं, क्योंकि उनमें किसी के प्रति राग-द्वष नहीं होता। उनके अनन्त केवलज्ञान में जिस प्रकार पदार्थ प्रतिबिम्बित हुए हैं, उसी प्रकार उन्होंने प्रकाशित किये हैं।' इस प्रकार की दृढ़, निःशंक श्रद्धा एवं प्रतीति रखना निःशंकित आचार है। __आचार्य निःशंकित दर्शनाचार से सम्पन्न होते हैं।
(२) निष्कांक्षित-अन्यतीथिकों-दूसरे धर्म सम्प्रदायों या मिथ्यामतावलम्बियों के आडम्बर, चमत्कार, हस्तकौशल, प्रदर्शन, महिमापूजा, इन्द्रियाकर्षक गायन-वादन या भोगविलास के दौर देखकर उस मत, पंथ, धर्म-सम्प्रदाय या तीर्थ का स्वीकार करने की आकांक्षा न करना और ऐसा भी न कहना कि ऐसा अपने धर्म-सम्प्रदाय में होता तो अच्छा रहता; क्योंकि आडम्बर, चमत्कार-प्रदर्शन आदि से आत्मा का कल्याण नहीं होता। आत्मकल्याण तो सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र और तप-संयम से तथा इन्द्रियनिग्रह से ही होता है। 13. इस प्रकार के निष्कांक्षित आचार से सम्पन्न आचार्य होते हैं। . .
(३) निविचिकित्सा-धर्मकरणी के फल में सन्देह को विचिकित्सा कहते हैं-धर्मक्रिया के फल में सन्देह नहीं करना निर्विचिकित्सा है। साधक ऐसा भाव मन में भी न लाए कि मुझे इतने-इतने वर्ष तपस्या करते-करते या अमुक धर्माचरण करते-करते हो गये, इसका कुछ भी फल दृष्टिगोचर नहीं हुआ। अब आगे क्या होने वाला है ? इतना कष्ट सहने का फल कौन जाने मिलेगा या नहीं?
निर्विचिकित्सा से सम्पन्न दर्शनाचार वाला साधक फलाकांक्षा भी नहीं करता और फल के विषय में सन्देह भी नहीं करता। जैसे उर्वरा भूमि में बोया हुआ बीज पानी का संयोग मिलने पर कालान्तर में फलदायी होता है, वैसे हो आत्मारूपी क्षेत्र में बोया हुआ धर्मक्रिया का बीज शुभपरिणामरूपी जल का संयोग पाकर कालान्तर में यथासमय अवश्य ही फलदायी होगा; इस प्रकार की फलाशंकारहित श्रद्धा आचार्यश्री की निविचिकित्सा-दर्शनाचारसम्पन्नता को सूचित करती है।
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तमेव सच्चं नीसंकं जं जिणेहिं पवेइयं ।
- भगवतीसूत्र