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________________ गुरु स्वरूप : १५ दर्शनाचार-पालन दर्शन के आठ आचार दर्शन के आठ आचार वस्तुतः सम्यग्दर्शन की विशुद्धि और दृढ़ता के आठ आचार हैं । दर्शन शब्द का अर्थ यहाँ देखना नहीं, किन्तु दृष्टि, रुचि, श्रद्धा या प्रतीति है। तत्त्वभूत पदार्थों पर श्रद्धान करना अथवा पदार्थ का जैसा स्वरूप है, उस पर उसी रूप से श्रद्धा करना सम्यग्दर्शन है। मिथ्यादर्शन इससे विपरीत होता है। सत्य को मिथ्यारूप में देखना, मिथ्या श्रद्धा, विपरीत प्रतीति या प्रतिकूल रुचि करना मिथ्यादर्शन है। आचार्यश्री में मिथ्यादर्शन बिलकुल नहीं होता। उनका सम्यग्दर्शन भी आठ अंगों या गुणों से परिपुष्ट होता है। इसलिए वे स्वयं तो सम्यग्दर्शनसम्पन्न होते ही हैं, दूसरों को भी सम्यग्दर्शन से युक्त बनाते हैं। सम्यग्दर्शन के आठ आचार अथवा आचरणीय गुण आठ होते हैं। वे इस प्रकार हैं-(१) निःशंकित, (२) निष्कांक्षित, (३) निर्विचिकित्सा, (४) अमूढदृष्टि, (५) उपबृहण, (६) स्थिरीकरण, (७) वात्सल्य और (८).प्रभावना।' ये आठ अंग दर्शन को आचरण में लाने के लिए आठ प्रकार के प्रयत्न हैं, जो दर्शन को सम्यक, प्रशस्त एवं सुदृढ़ बनाते हैं। इनका क्रमशः विश्लेषण इस प्रकार है (१) निःशंकित-अपनी अल्प बुद्धि एवं अल्पज्ञता के कारण शास्त्र में उल्लिखित तत्त्वज्ञान की या अतीन्द्रिय पदार्थ की बात समझ में न आने पर भी सर्वज्ञ-वचनों अथवा वोतरागप्ररूपित तत्त्वों या सिद्धान्तों के प्रति अश्रदा या शंका न करना निःशंकितता है । शंकाग्रस्त व्यक्ति संशय (भ्रम), विपर्यय और अनध्यवसाय के चक्कर में पड़कर सम्यग्दर्शन से विचलित हो जाता है, किन्तु निःशंकित व्यक्ति संशयादि के चक्कर में न पड़कर शास्त्रज्ञ पुरुषों से समाधान प्राप्त करता है, हठाग्रही बुद्धि नहीं रखता, अतीन्द्रिय बातों के विषय में वीतराग सर्वज्ञ आप्त पुरुषों के वचनों पर श्रद्धा, प्रतीति और रुचि रखता है। जिस प्रकार रत्न के मूल्य से अनभिज्ञ व्यक्ति जौहरी के वचनों पर विश्वास और प्रतीति रखकर तदनुसार व्यवहार करते हैं, उसी १ निस्संकिय निक्कंखिय निन्वितिगिच्छा अमूढदिट्टी य । उववूह-थिरीकरणे वच्छल-पभावणे अट्ठ ॥
SR No.002475
Book TitleJain Tattva Kalika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1982
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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