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. १५० : जैन तत्वकलिका—द्वितीय कलिका
अन्तिम चार प्रहर में कालिक एवं अन्य काल में उत्कालिक शास्त्रों का मूलअर्थ सहित स्वाध्याय (अध्ययन-अध्यापन) अस्वाध्याय (अस्वाध्याय के निमित्त) दोषों को वर्जित करते हुए स्वाध्यायकाल में करना । दूसरे शब्दों में यथोक्तकाल में ज्ञानार्जन करना।।
(२) विनय-विनयपूर्वक ज्ञानार्जन करना विनयाचार है । ज्ञान और ज्ञानी के प्रति श्रद्धा रखकर ज्ञानदान में निमित्त शास्त्रों एवं ग्रन्थों को नीचे एवं अपवित्र स्थान में न रखना, ज्ञानी को अपने से नीचे आसन पर न बिठाना, न ही उनकी आशातना करना, ज्ञानी की आज्ञा एवं सेवा में रहकर उन्हें यथोचित आहार, वस्त्र, पात्र, स्थान आदि के द्वारा साता पहुँचाना, वे जब शास्त्र का व्याख्यान करें तब श्रद्धा, आदर और एकाग्रता के साथ उनके वचनों को तथ्य कहकर स्वीकार करना ।
(३) बहुमान-गुरु आदि ज्ञानदाता का बहुमान-सम्मान करना, शास्त्रोक्त ३३ प्रकार की आशातनाओं का त्याग करना बहुमान-ज्ञानाचार
(४) उपधान-शास्त्राध्ययन प्रारम्भ करने से पूर्व और पश्चात उपधानतप (आयम्बिल आदि शास्त्रविहित तप) करना । उपधान तपोविधिपूर्वक शास्त्राध्ययन करना।
..(५) अनिह्नव-ज्ञानदाता छोटे हों या अप्रसिद्ध हों, उनका नाम या ज्ञानदायक शास्त्र या ग्रन्थ का नाम न छिपाना, उनका उपकार न भूलना; न ही उनके दूसरे किसी बड़े और प्रसिद्ध विद्वान या ज्ञानदायक ग्रन्थ का नाम बताना।
(६) व्यंजन-शास्त्र के व्यंजन, स्वर, गाथा, अक्षर, पद, अनुस्वार, विसर्ग, लिंग, काल, वचन आदि जानकर भलीभाँति समझकर न्यूनाधिक या विपरीत उच्चारण न करना। पाठ का व्याकरणसम्मत शुद्ध उच्चारण करना। ... (७) अर्थशास्त्र का सिद्धान्तानुसार जो अर्थ होता हो, वही अर्थ करे, विपरीत यां मनमाना अर्थ न करे । न ही सही अर्थ को छिपावे।
(८) तदुभय-मूल पाठ और अर्थ में व्यत्यय (विपरीतक्रम) न करे। पूर्ण शुद्ध और यथार्थ पाठ तथा उसका अर्थ पढ़े-पढ़ावे, सुने-सुनावे ।'
१ 'कालेविणए बहुमाणे, उवहाणे तह यऽणिण्हवणे । - बंजण-अत्थ-तदुभए, अट्ठविहो णाणमामारो॥'