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गुरु स्वरूप : १४१
ज्ञानाचार- पालन
ज्ञानाचार का अर्थ है - ज्ञान को आचरण में लाना, आचाररूप में उतारना । ज्ञान को केवल बघारने या दिमाग में ठूंस लेने का नाम ज्ञानाचार नहीं है, अपितु ज्ञान-प्राप्ति, आध्यात्मिक, सैद्धान्तिक एवं शास्त्रीय ज्ञान की उपलब्धि के लिए यथासम्भव उपायों से प्रयत्न करना; ज्ञानाराधना के लिए जो भी तप, जप, विनय, स्वाध्याय, ध्यान, कायोत्सर्ग आदि करना पड़े करना; ज्ञानार्जन करने-कराने के लिए निष्ठापूर्वक पुरुषार्थ करना; ज्ञान और ज्ञान के साधनों तथा ज्ञानी पुरुषों की आशातना न करना, बल्कि विनयबहुमान करना; ज्ञान एवं ज्ञानी के प्रति विनीत रहना; तीर्थंकरों द्वारा उपदिष्ट एवं गणधरों तथा आचार्यों द्वारा रचित शास्त्रों एवं ग्रन्थों का पठनपाठन करना; संघ में ज्ञान प्रचार-प्रसार के लिए प्रयत्न करना आदि ज्ञानाचार है ।
वस्तुतः किसी भी हेय - उपादेय वस्तु को त्यागने - ग्रहण करने से पूर्व उसका स्वरूप जानना आवश्यक होता है, तत्पश्चात् उपादेय वस्तु का ज्ञान होने पर उसे आचरण में लाने या उसे पाने का उपाय जानना आवश्यक होता है । इस दृष्टि से भी ज्ञान आचरणीय - आराधनीय वस्तु है ।
सम्यग्ज्ञान ही साधक के जन्म-जन्मों के कर्मबन्धनों को काट सकता है, मुक्ति प्राप्त करा सकता है । ज्ञानाग्नि ही समस्त कर्मों को भस्म कर सकती है । अज्ञान, मोह एवं राग-द्व ेष को दूर करने के लिए ज्ञान ही सर्वश्रेष्ठ उपाय है । "
आचार्य महाराज ज्ञानसम्पन्न होकर ज्ञान की स्वयं आराधना करते हैं, दूसरों को भी ज्ञानसम्पन्न बनाने का प्रयत्न करते हैं । ज्ञान के आठ आचार
शास्त्र में ज्ञान प्राप्ति के लिए अष्टविध आचार - मर्यादाओं का पालन बताया है – वे आठ ज्ञानाचार ये हैं - (१) काल, (२) विनय, (३) बहुमान, (४) उपधान, (५) अनिह्नव, (६) व्यञ्जन, (७) अर्थ और (८) तदुभय । (१) काल - ज्ञानार्जन के लिए दिवस और रात्रि के प्रथम और
१ (क) ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात् कुरुतेऽजुन ! – गीता, अ० ४ श्लोक ३७ 'नाणस्स सव्वस्त पगासणाए, अन्नाणमोहस्स विवज्जणाए ।
- उत्तरा० अ० ३२ गा. २