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१४८ : जैन तत्त्वकलिका - द्वितीय कलिका
या अविद्यमान, बाह्य ( द्रव्य) हो या आभ्यन्तर (भाव) सब प्रकार के परिग्रहों का तीन करण तीन योग से त्याग करना । जो वस्त्र, पात्र, कम्बल, पादप्रोछन आदि धर्मोपकरण संयम निर्वाह के लिए रखे हैं, उन पर भी ममतामूर्च्छा का त्याग करना पाँचवाँ सर्व परिग्रह - विरमण या अपरिग्रह महाव्रत है । • पंचम महाव्रत की पाँच भावनाएँ
रागोत्पादक मनोज्ञ शब्द, रूप, रस, गन्ध और स्पर्श पर राग न करना - न ही ललचाना तथा द्वेषोत्पादक अमनोज्ञ शब्द, रूप, रस, गन्ध और स्पर्श पर द्वेष- रोष न करना, अप्रसन्न न होना, ये ही पाँच भावनाएँ हैं, ' जिनका नाम क्रमशः मनोज्ञामनोज्ञ शब्द समभाव, मनोज्ञामनोज्ञ रूप समभाव, मनोज्ञामनोज्ञ रस समभाव, मनोज्ञामनोज्ञ गन्ध समभाव और मनोज्ञामनोज्ञ स्पर्श समभाव है।
आचार्यश्री बाह्याभ्यन्तर परिग्रहों तथा उपकरण, शरीरादि, की ममता-मूर्च्छा से दूर रहकर पूर्णतः अपरिग्रह महाव्रत का पालन करते हैं । पंचविध - आचार- पालन समर्थ
आचार्य पाँच प्रकार के आचार का प्रत्येक परिस्थिति में पालन करने में समर्थ होते हैं । कैसी भी विकट परिस्थिति क्यों न हो, वे आचार मर्यादाओं का प्राणप्रण से पालन करते हैं । आचार्य के लिए आचारः प्रथमो धर्म: ४ (आचार- पालन या धर्माचरण अथवा पंचविध आचार प्रथम धर्म ) होता है ।
वे आचरणीय पाँच आचार इस प्रकार हैं- (१) ज्ञानाचार, (२) दर्शनाचार, (३) चारित्राचार, (४) तप आचार और (५) वीर्याचार ।
पंचाचारप्रपालक आचार्य पाँचों आचारों का निष्ठापूर्वक पालन किस प्रकार से करते हैं, इसका क्रमशः विश्लेषण निम्नोक्त है-
१ आवश्यकसूत्र में पाँच भावनाओं के नाम इस प्रकार हैं- 'सोइंदियरागोवरई, चक्खिदिरागोवरई, घाणिदियरागोवरई, जिब्भिंदियरागोवरई, फासिंदियरागो - वरई ।'
२ तत्त्वार्थसूत्र अ० ७ सू० ३ पर विवेचन (पं. सुखलालजी) पृ० १६९
३
'शास्त्र में बाह्य परिग्रह १४ प्रकार के तथा आभ्यन्तर परिग्रह भी १४ प्रकार के बताये हैं तथा शरीर, कर्म और उपधि ये त्रिविध परिग्रह भी हैं ।'
४ मनुस्मृति