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गुरु स्वरूप : १४३
आचार्य प्रथम महाव्रत का पूर्णरूप से सर्वथा पालन करते-कराते हैं; अहिंसा का आचरण करने कराने के लिए वे सदा कटिबद्ध रहते हैं । द्वितीय - सत्य महाव्रत
इस का शास्त्रीय नाम' 'सर्वमृषावादविरमण' है । इसका अर्थ हैक्रोध, लोभ, भय, अथवा हास्य आदि के वश होकर तीन करण और तीन योग से द्रव्य-क्षत्र - काल-भाव से किसी भी प्रकार का मृषावाद (असत्य - झूठ न बोलना यह इसका निषेधात्मकरूप है । विधेयात्मक रूप है - सर्व प्रकार से सत्य-तथ्य पथ्य, यथार्थ, हितकर, परिमित, निर्दोष वचन बोलना, अथवा मन-वचनकाया से सत्याचरंण करना करना और अनुमोदन कराना सत्य महाव्रत है । द्वितीय महाव्रत की पाँच भावना
सत्य महाव्रत में स्थिर रहने के लिए पाँच भावनाएँ हैं—
(१) अनुवीचिभाषण - निर्दोष, मधुर, सत्य, तथ्य, हितकर वचन विचारपूर्वक बोलना; शीघ्रता और चपलता से बिना विचार किये भाषण न करना; ऐसे शब्दों का प्रयोग न करना जिससे किसी के मन को आघात लगे, किसी का प्राणघात हो, जो कटु हो, जिससे किसी को दुःख हो । तभी सत्य
रक्षा हो सकती है |
(२) क्रोधवश भाषणवर्जन- क्रोधवश झूठ बोला जाता है । क्रोधावेश में मनुष्य असत्य, पैशुन्य, कलह, वैर, अविनय आदि अवगुणों को पैदा कर लेता है; तथा सत्य, शील, विनय आदि का नाश कर लेता है । अतः क्रोधावेश हो, तब भाषण न करना, मौन एवं क्षमाभाव रखना ।
(३) लोभवश भाषणवर्जन- लोभवश झूठ बोला जाता है, उससे सत्य का नाश हो जाता है । अतः जब लोभ का उदय हो, तब सत्य - रक्षा हेतु न बोलना, लोभ का परिहार करके सन्तोष धारण करना ।
(४) भयवश भाषण - त्याग - भय के वश असत्य बोला जाता है । अतः जब भयविह्वलता या भयोद्र के हो, तब न बोलना, धैर्य रखना, जिससे सत्यव्रत की रक्षा हो ।
(५) हास्यवश भाषणत्याग — हँसी मजाक या विनोद में झूठ बोला जाता है | अतः हास्य का उदय होने पर सत्यरक्षा हेतु नहीं बोलना, मौन
रखना ।
१ 'सव्वाओ मुसावायाओ वेरमणं ।'
२ कोहा वा लोहा वा भया वा हासा वा असच्च ण वएज्जा ।