________________
१४२ : जैन तत्त्वकलिका - द्वितीय कलिका
(काया) से आजीवन द्रव्य-क्षेत्र - काल-भाव से सर्वथा त्याग करना प्रथम सर्वप्राणातिपात विरमणव्रत है ।
प्रथम महाव्रत की पाँच भावनाएँ
(१) ईर्या समितिभावना - स्वपर को क्लेश न हो, इस प्रकार यत्न पूर्वक त्रस स्थावर जीवों की रक्षा करते हुए भूमि को देखभाल कर या पूजकर चलना । अहिंसाव्रत की रक्षा के लिए किसी भी जीव की निन्दा गर्हा या हीना अथवा हानि नहीं करना ।
(२) मनोगुप्ति भावना - धर्मनिष्ठ पुरुषों को अच्छा जाने और पापी पुरुषों पर दया लाए कि ये बेचारे अज्ञानतावश पाप कर रहे हैं । इन पापों का दुष्परिणाम उन्हें कितने दुःखपूर्वक भोगना पड़ेगा ? इस प्रकार धर्मीअधर्मी के प्रति मन में समत्व भाव रखना; अथवा मन को अशुभ ध्यान से हटाकर शुभध्यान में लगाना; मन से किसी भी जीव के प्रति वध, बन्ध, क्लेश, पतन, मरण और भय के उत्पादक तथा हानिकारक विचार नहीं
करना ।
(३) एषणासमिति भावना - वस्त्र, पात्र, आहार, स्थान आदि वस्तुओं की गवेषणा, ग्रहणैषणा और परिभोगैषणा, इन तीनों एषणाओं में दोष न लगने देना, निर्दोष वस्तु के उपयोग का स्थान रखना । '
(४) आदाननिक्ष पणसमिति भावना - वस्त्र, पात्र, आहार, पानी, आदि किसी वस्तु को लेते ( उठाते), रखते या छोड़ते समय प्रमाणोपेत दृष्टि से प्रतिलेखना-प्रमार्जन-पूर्वक ग्रहण करना, रखना एवं छोड़ना ।
(५) आलोकित पान - भोजन - भावना - भोजन-पान की वस्तु को भलीभाँति देखभाल कर लेना तथा सदैव देखभाल कर, स्वाध्यायदि करके, गुरुआज्ञा प्राप्त कर संयमवृद्धि के लिए शान्त एवं समत्वभाव से स्तोक मात्र आहारादि का सेवन करना |
ये पाँच भावनाएँ अहिंसा महाव्रत की रक्षा एवं स्थिरता के लिए हैं । दिन हो, रात्रि हो, अकेला हो या समूह में हो, सोया हो या जाग रहा हो, कैसी भी परिस्थिति में किसी भी प्रकार की हिंसा कहीं भी नहीं करनी-करानी चाहिए, यही अहिंसा महाव्रत का उद्देश्य है ।
१ इसके बदले प्रश्नव्याकरण सूत्र में 'वयपरिजाणइ' भावना (हिंसाकारी, दोषयुक्त, असत्य और अयोग्य वचन न बोल वचन गुप्ति भावना ) है ।
२ तत्वार्थ सूत्र अध्याय ७, सू० ४ के अनुसार ये अर्थ दिये गये हैं ।