________________
गुरु स्वरूप : १४१
प्रथम-अहिंसा महाव्रत इसका शास्त्रीय नाम 'सर्वप्राणातिपात-विरमण'१ है। अर्थात-सभी प्रकार के प्राणातिपात जीव-अहिंसा से तीन करण तीन योग से विरत-निवृत्त होना।
__इस महाव्रत का जैसे यह निषेधात्मकरूप है, वैसे इसका विधेयात्मक रूप भी है-तीन करण-तीन योग से अहिंसा का पालन करना। इसमें जीवदया, प्राणिरक्षा, अभयदान, सेवा, क्षमा, वात्सल्य, अनुकम्पा, मंत्री, प्रमोद, कारुण्य, और माध्यस्थ्य, आत्मौपम्यभाव आदि अहिसा के सभी रूप आ जाते हैं।
सर्वप्राणातिपातविरमण का अर्थ-प्राण दस प्रकार के हैं-(१) श्रोत्रेन्द्रियबलप्राण, (२) चक्षुरिन्द्रियबलप्राण, (३) घ्राणेन्द्रियबलप्राण, (४) रसेन्द्रियबलप्राण, (५) स्पर्शेन्द्रियबलप्राण, (६) मनोबलप्राण, (७) वचनबलप्राण, (८) कायबलप्राण, (६) श्वासोच्छ्वासबलप्राण और (१०) आयुष्यबलप्राण
प्राणधारक करने वाले को प्राणी (जीव) कहते हैं। दस प्रकार के प्राणों में से ४ प्राण (स्पर्शेन्द्रिय, काय, श्वासोच्छ्वास और आयुष्य) एकेन्द्रिय (स्थावर) जीवों में पाए जाते हैं। द्वीन्द्रिय जीवों में ६ प्राण (रसनेन्द्रिय और वचनबलप्राण. अधिक), त्रीन्द्रिय जीवों में ७ प्राण (एक घ्राणेन्द्रियबलप्राण अधिक); चतुरिन्द्रिय जीवों में ८ प्राण (चक्ष रिन्द्रियबल-प्राण अधिक); असंज्ञीपंचेन्द्रिय जीवों में ६ प्राण (श्रोत्रेन्द्रियबलप्राण अधिक) और संज्ञी (समनस्क) पंचेन्द्रिय जीवों में (मनोबल प्राण अधिक होने के कारण) दस प्राण होते हैं। इन समस्त प्राणधारियों के किसी भी प्राण का अतिपात वियोग (विनाश) करना प्राणातिपात अथवा हिंसा है। इस प्रकार के प्राणातिपात (हिंसा) का तीन करण (कृत-कारित और अनुमोदितरूप) तथा तीन योग (मन-वचन
१ सव्वाओ पाणाइवायाओ वेरमण । २ जिसके बल- आधार से किसी कार्य में प्रवृत्ति कर सके, उसे बलप्राण
कहते हैं। ३ जो जीव माता-पिता के संयोग के बिना उत्पन्न होते हैं तथा मनन करने की
विशिष्ट शक्ति से रहित होते हैं, वे असंज्ञी कहलाते हैं । ४ पंचेन्द्रियाणि त्रिविधं बल च उच्छ्वास-निःश्वासमथान्यदायुः ।
प्राणा दर्शते भगवद्भिसक्तास्तेषां वियोजीकरण तु हिंसा ॥