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१४० : जैन तत्त्वकलिका - द्वितीय कलिका
परोपकार, दया, क्षमा, आत्मीयता आदि की भावना लोभी मनुष्य के हृदय से विदा हो जाती है । इसीलिए लोभ को पाप का बाप' कहा गया है ।
लोभी मनुष्य चापलूसी, गुलामी, मिष्टभाषिता आदि से धोखेबाजी करके दूसरों को अपने चंगुल में फँसाते हैं । वे अपनी संस्कृति, धर्म, कुलीनता और जातीयता के विरुद्ध कुकृत्य भी कर बैठते हैं। पंचेन्द्रिय प्राणियों की हत्या करने से भी वे नहीं चूकते । पर्याप्त धन हो जाने पर भी लोभी मनुष्य को कभी तृप्ति और सन्तुष्टि नहीं होती । वह अनेक कुकृत्य करके पापों की गठरी सिर पर लादकर हाय-हाय करता और मरकर दुर्गति में जाता है । अतः साधक को किसी प्रकार का लोभ नहीं करना चाहिए । कदाचित् लोभ का उदय हो जाए तो उसे ज्ञान, वैराग्य और संतोष द्वारा शान्त कर देना चाहिए । इस प्रकार लोभ को सर्वगुणविनाशक दुर्गतिदायक जानकर आचार्य महाराज लोभ का त्याग कर सदैव संतोषमग्न रहते हैं ।
उपर्युक्त चारों कषायों के तीव्र मध्यम मन्द मन्दतर भेद के अनुसार प्रत्येक के चार-चार भेद होते हैं - ( १ ) अनन्तानुबन्धी, (२) अप्रत्याख्याना - वरण, (३) प्रत्याख्यानावरण और (४) संज्वलन । फिर इनका भी बहुत लम्बा चौड़ा परिवार है ।
तत्त्वज्ञ आचार्यश्री इन सब भेदों को भलीभाँति जानते हैं और इनको आध्यात्मिक विकास के अवरोधक मानकर इनका सर्वथा परित्याग करने के लिए प्रयत्नशील रहते हैं ।
पाँच महाव्रतों से युक्त
आचार्यप्रवर अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह, इन पाँच महाव्रतों को प्रत्येक की पाँच-पाँच भावनाओं सहित तीन करण (कृत, कारित, अनुमोदित) तीन योग ( मन, वचन और काया) से दृढ़तापूर्वक पालन करते हैं । यद्यपि सामान्य साधु भी पाँच महाव्रतों का पालन करते हैं और आचार्य भी, किन्तु आचार्यश्री इन पाँचों महाव्रतों का विशेष उपयोगपूर्वक स्वयं भी पालन करते हैं, संघ के साधु-साध्वीगण को भी दृढ़तापूर्वक पालन करने की प्रेरणा करते हैं, इनके पालन में कोई शिथिलता, दोष या मलिनता आ जाए, तो यथोचित प्रायश्चित्त देकर उनकी शुद्धि करते हैं। पांच महाव्रतों का विवेचन इस प्रकार है—
१ 'लोभ पाप का बाप बखाना'
—लोकोक्ति