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गुरु स्वरूप : १३६
दशवैकालिक सूत्र में विभिन्न प्रकार की माया करने वाले साधक को उस-उस साधना का 'चोर' कहा गया है। 'जो साधक तपस्वी न होते हुए भी अपने आपको तपस्वी बताता है, वह तप का चोर होता है, वयस्क स्थविर न होते हुए भी किसी के पूछने पर अपने आपको वयःस्थविर बताने वाला वय का चोर है। रूपवान् तेजस्वी देखकर किसी के पूछने पर अपने आपको रूपवान् तेजस्वी व्यक्ति के पुत्र-सा बताने वाला रूप का चोर है। जो अन्दर में अनाचार सेवन करता है, ऊपर से मलिन वस्त्र आदि धारण करके जो स्वयं को शुद्धाचारी या आचारवान् बताता है, वह आचार का चोर है। चोर होकर भी ऊपर से साहकारी बताने वाला, ठग होकर भी भक्तिभाव प्रकट करने वाला भावों का चोर है।'
ये पाँचों प्रकार के चौर्य वत्ति के साधक मरकर यदि देवगति प्राप्त करें तो चाण्डाल के समान नीच जाति वाले मिथ्यादृष्टि, अस्वच्छ, घृणास्पद और निन्दापात्र किल्विषी जाति के देव होते हैं। वहाँ से मरकर मूक भेड़बकरी की योनि प्राप्त करते हैं। अनन्तकाल तक नीच योनियों में जन्ममरण करता है । उसको बोधि (सम्यग्दृष्टि) की प्राप्ति दुर्लभ होती है ।' मायाचार का इतना भयंकर परिणाम जानकर आचार्य महाराज किसी कारण के मिल जाने पर भी कदापि माया-छल का सेवन नहीं करते । वे भीतर-बाहर विशुद्ध, निश्छल, निमल एवं सरलस्वभावी होते हैं। किसी कारणवश छल करने के भाव उत्पन्न हो भी जाएँ तो उन्हें तुरन्त निष्फल कर देते हैं ।
(४) लोभ कषाय-लालच, प्रलोभन, लालसा, तष्णा आदि सब लोभ के पर्याय हैं। लोभ मनुष्य के समस्त सद्गुणों का नाशक है। इसके पाश में फंसे हुए प्राणी क्षधा, तषा, शीत, ताप, अपमान, पीड़ा, मारपीट, आदि अनेक प्रकार के दुःख पाते हैं । लोभ के वश में होकर मनुष्य माया-कपट करता है, क्रोध और अभिमान भी करता है। सन्तोष, शान्ति, निःस्वार्थता,
१ तवतेणे : वयतेणे रूवतेणे अ जे नरे।
आयारभावतेणे य कुम्वइ देवकिदिवस। तत्तो वि से चइत्ताणं लब्भइ एलमूअयं । नरय तिरिक्खजोणि वा बोही जत्थ सुदुल्लहा ।।
- दशवकालिक अ० ५ गाथा ४६, ४९ २ 'लोहो सव्वविणासणो'
-दशवकालिक अ०६, गाथा ३८