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१३८ : जैन तत्त्वकलिका-द्वितीय कलिका
सका
जो व्यक्ति इन आठों में से जिसका भी मद करता है, वह आगामी भव में उसी की हीनता प्राप्त करता है। उदाहरणार्थ-जाति या कुल का अभिमान करने वाला व्यक्ति आगामी जन्म में नीच जाति या नीच कूल में उत्पन्न होता है। बलाभिमानी निर्बल, रूपाभिमानी कुरूप, तपोमद करने करने वाला तपोहीन, श्रु ताभिमानी मूर्ख या निर्बुद्धि होता है । लाभाभिमानी दरिद्र या किंकर और ऐश्वर्याभिमानी भविष्य में अनाथ या. निराधार होता है। खेद है मानव अपनी अज्ञानता के कारण इच्छानुकूल उत्तम वस्तु की प्राप्ति हो जाने से उसका मद करके भविष्य में उसी वस्तु की हीनता प्राप्त करता है।
__तत्त्वज्ञ आचार्य इस बात को भलीभाँति जानते हैं. और कोई भी निमित्त मिल जाने पर अहंकार न करके सदैव निरभिमान, नम्र और विनीत होते हैं। वे आचार्य जैसा उच्च पद पाकर भी अभिमान नहीं करते, संघ का शासन वे धर्मशासन के लिए तथा साधकों के जीवन निर्माण के लिए मानकर करते हैं।
(३) माया कषाय -माया, कपट, कुटिलता, वक्रता, छल, धोखेबाजी, वंचना आदि को कहते हैं। माया प्रकृति को वक्र बनाती है। शास्त्र में माया को तीन शल्यों में से एक शल्य माना गया है। जैसे-शरीर में चुभा हुआ तीखा काँटा निरन्तर व्यथा पहँचाता है, वसे ही मायारूप भावशल्य आत्मा को जन्म-जन्म में घोर पीड़ा पहुँचाती है। सच्चा व्रतधारी वही है, जो शल्य से रहित हो।२।।
शास्त्र में 'मायी' के साथ 'मिथ्यादृष्टि'३ शब्द जुड़ा हुआ मिलता है, वह भी इस बात का द्योतक है कि 'मायी' अधिकांशतः 'मिथ्यादृष्टि' होता है।
जो पुरुष मायाचार करता है, वह आगामी भव में स्त्रीपर्याय पाता है और जो स्त्री माया-सेवन करती है, वह मरकर नपुसक होती है और यदि नपुंसक माया का सेवन करता है, वह मरकर तिर्यञ्च गति विशेषतः एकेन्द्रियतिर्यञ्चयोनि प्राप्त करता है।
१ पडिक्कमामि तिहिं सल्लेहि-मायासल्लेणं नियाणसहलेणं मिच्छादसणसल्लेणं।'
-आवश्यकसूत्र २ निःशल्योव्रती
-तत्त्वार्थ० अध्याय० ७, सू० १३ ३ मायोमिच्छादिट्ठी
-भगवती सूत्र ४ मायातैर्यग्योनस्य
-तत्त्वार्थ० अध्याय ६, सू० १७