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गुरु स्वरूप : १३७
hat भी जला डालता है । क्रोध प्रोति का नाश कर डालता है ।" क्रोधी व्यक्ति और बनी हुई बात को क्षणभर में बिगाड़ देता है । क्रोध के फलस्वरूप जीव कुरूप, सत्त्वहीन, अपयश का भागी और अनन्त जन्म-मरण करने वाला बन जाता है । क्रोधविजय से साधक क्षमाभाव को प्राप्त कर लेता है । क्रोधवेदनीय कर्म का बन्ध नहीं करता । पूर्वबद्ध कर्मों की निर्जरा कर लेता है । ऐसा जानकर आत्महितैषी आचार्य महाराज कदापि क्रोध से संतप्त नहीं होते । किसी कारणवश उदय में आए हुए क्रोध को वे सदैव उपशम- जल से शान्त कर लेते हैं और दूसरों को भी शान्त-शीतल बनाते हैं ।
(२) मानकषाय - मान द्वितीय कषाय है, जो प्रकृति को कठोर बनाता है । यह निश्चित है कि जहाँ मान होगा, वहाँ विनय गुण नौ दो ग्यारह हो जाएगा । विनय के अभाव में ज्ञानप्राप्ति नहीं हो सकती और ज्ञानप्राप्ति
बिना व्यक्ति जीव-अजीव आदि तत्त्वों को जान नहीं सकता, जीवाजीवादि जाने बिना दया, संवर, समता, क्षमा, निर्जरा आदि नहीं कर सकता । इनके बिना धर्म का आचरण नहीं हो सकता । धर्माचरण के बिना कर्मक्षय नहीं हो सकता । कर्मक्षय के बिना मुक्ति का अक्षय अव्याबाध सुख प्राप्त नहीं हो सकता। इस प्रकार अभिमान मोक्ष प्राप्ति में बहुत बड़ा बाधक है
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बड़े-बड़े तपस्वी, ज्ञानी, ध्यानी, संयमी, क्रियाकाण्डी साधक अभिमानी बनकर ईर्ष्या, द्व ेष, वैर-विरोध, मत्सर, स्वार्थ आदि से ग्रस्त हो जाते हैं । इस प्रकार वे जिनाज्ञा के विराधक बनकर अपना मनुष्यभव और भविष्य बिगाड़ लेते हैं ।
मानान्ध मनुष्य सदैव अवगुणग्राही होता है । वह दूसरों की प्रगति नहीं देख सकता । वह सदैव दूसरों के छिद्र देखता रहता है । मानान्ध मानव अपने अभिमान की पूर्ति के लिए लाखों का धन, धर्म, शरीर तथा परिवार तक को बर्बाद कर देते हैं । फिर भयंकर दुःखभागी बनकर पश्चात्ताप करते हैं । मानी सदैव दुर्ध्यान में मग्न रहता है । इसलिए मानाविष्ट व्यक्ति सतत घोर कर्मबन्ध करता रहता है ।
मान की उत्पत्ति के स्रोत ८ मद हैं - ( १ ) जातिमद, (२) कुलमद, (३) बलमद, (४) रूपमद, (५) लाभमद, (६) तपोमद, (७) श्रुतमद और (८) ऐश्वर्यमद । *
१ कोहो पीइं पणासेइ
२ 'माणो विणयणासणो । '
३ समवायांग, ८ वाँ समवाय
- दशवैकालिक अ० ८ गाथा ३८
- दशवैकालिक अ० ८ गाथा ३८
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