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________________ १३६ : जैन तत्त्वकलिका-द्वितीय कलिका है। क्योंकि वह समझता है कि क्रोधादि चार कषायों को हृदय में बसाने वाला जलती हुई भयंकर आग को हृदय में बसाता है। जब वह कषायअग्नि भड़कती है तो साधक की क्षमा, दया, शील, विनय, निश्छलता, निरभिमानता, नम्रता, सन्तोष, धैर्य, तप, संयम, ज्ञान आदि उत्तमोत्तम गुण रूपी पुष्पों को जला कर भस्म कर डालती है। मनुष्य को आध्यात्मिक चेतना पर ये दुगुणों की कालिमा चढ़ा देते हैं। कषाय मुख्यतया चार हैं-(१) क्रोध, (२) मान, (३) माया, और (४) लोभ । ये चारों कषाय चोर की तरह चुपके से साधक के तन-मन में प्रविष्ट होकर उसकी आध्यात्मिक सम्पत्ति का अपहरण कर लेते हैं। कषायाविष्ट व्यक्ति पुनर्जन्म-मरण से मूल को सींचता है।' जिसके परिणाम से संसार (कष) की वृद्धि (आय) होती है, और जो कर्मबन्ध का प्रधान कारण है, आत्मा का वह विभाव परिणाम कषाय कहलाता है। कषाय आत्मा के प्रबल शत्रु हैं। जैसे पीतल के बर्तन में रखा हुआ दूध-दही कसैला और विषाक्त हो जाता है, वैसे कषायरूपी दुगुण से आत्मा में निहित संयम आदि गुण विषाक्त और मलिन हो जाते हैं। कषायरूपी अग्नि को आचार्य, श्र त और शील की धारा से शान्त कर देते हैं। (१) क्रोधकषाय-क्रोध प्रथम कषाय है, जो मनुष्य के स्वभाव को चण्ड, उग्र और कर बना देता है। क्रोधावेश में व्यक्ति अपने आत्मीयजनों की हत्या करने में भी नहीं चूकता । अत्यन्त कुपित व्यक्ति आत्महत्या भी कर बैठता है। क्रोधी व्यक्ति स्वयं चाण्डाल है। क्रोध में उन्मत्त होकर व्यक्ति भान भूल जाता है और अपनी प्रिय वस्तु को भी तोड़फोड़ डालता है । क्रोधान्ध व्यक्ति की बुद्धि नष्ट हो जाती है। वह आपे से बाहर होकर अंटसंट बकने लगता है, उसे अपना हिताहित नहीं सूझता, क्रोधाविष्ट व्यक्ति कृतघ्न होकर उपकारी के उपकार को भूल जाता है। अतः वह स्वयं जलता है और दूसरों १ (क) चत्तारि एए कसिणा कसाया, सिंचंति मूलाई पुणब्भवस्स । - दशवकालिक अ० ८ गाथा ४० (ख) सपज्जलिया घोरा अग्गी चिट्ठइ गोयमा ! जे डहंति सरीरत्था ।कसाया अग्गिणो वुत्ता... -उत्तराध्ययन अ० २३, गाथा ५०-५३
SR No.002475
Book TitleJain Tattva Kalika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1982
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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