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१४४ : जैन तत्वकलिका-द्वितीय कलिका
इस प्रकार आचार्यश्री सत्य महाव्रत का पालन तीन करण, तीन योग से दृढ़तापूर्वक करते-कराते और अनुमोदन करते हैं।
तृतीय-अचौर्य महाव्रत इसका शास्त्रीय नाम है-सर्व अदत्तादान-विरमण' अर्थात् सब प्रकार से अदत्तादान-चौर्य से निवृत्त-विरत होना । यह इसका निषेधात्मक रूप है । इस महाव्रत का विधेयात्मक रूप है-आहार, पानी, वस्त्र, पात्र, औषध, स्थान आदि का निर्दोष रूप से ग्रहण तथा उपभोग (उपयोग या सेवन) करना।
तात्पर्य यह है कि वस्तु ग्राम, नगर या जंगल में हो, वस्तु अल्प मूल्य की हो, या बहुत मूल्य की हो, छोटी (अण) हो या बड़ी (स्थूल) हो, सजीव (सचित्त-पशु, पक्षी, मनुष्य आदि) हो अथवा निर्जीव (वस्त्र-पात्र, आहारस्थानादि अचित्त) हो; उसके स्वामी की आज्ञा इच्छा, या दिये बिना तीन करण (कृत-कारित-अनुमोदित रूप) से तथा तीन योग (मन-वचन-काया) से द्रव्य-क्षत्र-काल-भाव से ग्रहण न करना अदत्तादान विरमण (अचौर्य) महाव्रत कहलाता है। अदत्त के पाँच प्रकार
(१) देव-अदत्त-तीर्थंकर देव की जिस वस्तु (साधुवेष, आचार आदि) की आज्ञा है, उसका उल्लंघन करके मनमाना वेष, आचार-विचार-प्ररूपण आदि करना देवअदत्त है, अथवा जो वस्तु व्यवहार में किसी के स्वामित्व या अधिकार की नहीं है, उस वस्तु का मालिक शक्र-देवेन्द्र या कोई देव होता है, जैसे-स्थण्डिल भूमि या मार्ग की रेत आदि । उक्त देव की आज्ञा के बिना लेना भी देव अदत्त है। . (२) गुरु-अदत्त-अपने से दीक्षा पर्याय में ज्येष्ठ (साधु अथवा गुरु या
आचार्यादि बड़े साधु 'गुरु' कहलाते हैं। उनकी वस्त्र, पात्र, आहार-पानी, स्थान आदि तथा स्वाध्याय-ध्यानादि प्रवत्तियों के विषय में अनुज्ञा न लेना या उनकी आज्ञा का उल्लंघन करना गुरु-अदत्त है ।
(३) राजा-अदत्त-जिस देश, प्रान्त या जनपद का जो शासनकर्ता हो, उसकी उस क्षेत्र में विचरण करने या रहने की आज्ञा लेनी साधक के लिए अनिवार्य है। शासक की आज्ञा न लेना, राजा-अदत्त है।
१ सव्वाओ आदिण्णादाणाओ वेरमण ।