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गुरु स्वरूप : १३३
नवविध ब्रह्मचर्य गुप्तियों के धारक
जिस प्रकार किसान अपने बोये हुए खेत की रक्षा के लिए उसके चारों ओर बाड़ लगाता है, वैसे ही आचार्य या ब्रह्मचारी पुरुष धर्म के बीज रूप ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए नौ प्रकार को बाड़ (गुप्ति) लगाते हैं; अर्थात् - नौ प्रकार की ब्रह्मचर्यगुप्तियों से अपने ब्रह्मचर्य को सुरक्षित रखते हैं। वे नौ ब्रह्मचर्य-गुप्तियाँ इस प्रकार हैं
(१) स्त्री-पशु-पण्डक रहित विविक्त स्थान-जिस स्थान में बिल्ली रहती हो, वहाँ चूहा रहे तो उसकी खैर नहीं, इसी प्रकार जिस मकान में ब्रह्मचारी पुरुष रहता है, उस मकान में अगर, मनुष्य या तियञ्च की स्त्री, या नपुंसक का अनिश निवास हो या रात्रि में एकाकी स्त्री का आगमन हो, तो ब्रह्मचारी के ब्रह्मचर्य को खतरा है।' अतः ब्रह्मचर्य के साधक को इस विषय में सावधान रहना चाहिए।
(२) मनोरम स्त्री-कथावर्जन-जैसे नीबू, इमली आदि खट्टे पदार्थों का नाम लेते ही मुह में पानी छूटने लगता है, वैसे ही स्त्री के सौन्दर्य, शृंगार, लावण्य, हाव-भाव और अंगोपांगों के लटके और चातुर्य आदि का वर्णन करने से विकार उत्पन्न होता है । अतः उससे ब्रह्मचर्य साधक को बचना चाहिए।
(३) स्त्रियों का अतिसंसर्ग वर्जन-स्त्रियों का बार-बार, अतिसंसर्ग, परिचय, बातचीत एवं एक ही आसन पर स्त्रीपुरुष का बैठना ब्रह्मचर्यनाश का कारण है। अतः ब्रह्मचारी पुरुष को स्त्रियों की अतिसंसक्ति से बचना चाहिए।
(४) स्त्रियों के अंगोपांग निरीक्षण वर्जन-जैसे सूर्य की ओर टकटकी लगाकर देखने से आँखों को हानि पहुँचती है वैसे ही ब्रह्मचारी पुरुष द्वारा स्त्रियों के अंगोपांगों को विषय वासना को दष्टि से ताक-ताक कर देखना उसके लिए खतरनाक है । ऐसा करने से ब्रह्मचर्य का विनाश निश्चित है । ब्रह्मचारी को इससे बचना चाहिए।
(५) स्त्रियों के कामवद्ध क शब्द-गोतस्मरण वर्जन-जैसे मेघगर्जन सुनकर मयूर हर्षित होता है, उसी प्रकार पर्दे, दीवार आदि के पीछे रतिक्रीड़ा, दाम्पत्यसहचार तथा अन्य विकारवद्धक गायन, शब्द,
१ जहा विरालावसहस्स मूले, न मूसगाणं वसही पसत्था । एमेव इत्थीनिलयस्स मज्झे, न बंभयारिस्स खमो निवासो ।
-उत्तरा० अ० ३२ गाथा १३