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१३२ : जैन तत्त्वकलिका-द्वितीय कलिका
घ्राणेन्द्रिय का विषय गन्ध है, वह दो प्रकार का है-सुगन्ध और दुर्गन्ध । घ्राणेन्द्रियनिग्रह का यह अर्थ नहीं कि गन्ध आते ही नाक बन्द कर ले, किन्तु यह अर्थ है कि सुगन्ध या दुर्गन्ध पर राग-द्वेष न करे। दो प्रकार की गन्ध सचित्त, अचित्त व मिश्र के भेद से तीन-तीन प्रकार की है। फिर इन पर राग
और द्वष होने से ६x२= १२ प्रकार के घ्राणेन्द्रिय विकार के हुए। रसनेन्द्रियनिग्रह
जिसके द्वारा स्वाद चखा जाय, उसे रसनेन्द्रिय कहते हैं। रसनेन्द्रिय के ५ विषय हैं-तिक्त, कटु, कषाय (कसैला), खट्टा और मीठा। इन पाँचों रसों वाले पदार्थ सचित्त, अचित्त, मिश्र तीन-तीन प्रकार के होते हैं। इसलिए ५४३= १५ भेद हए। ये १५ शुभ भी होते हैं और अशुभ भी। फिर इन पर राग और द्वष होने से १५४२=३०४२=६० भेद रसनेन्द्रिय विकार के
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हुए।
स्पर्शेन्द्रियनिग्रह
जिससे स्पर्श की प्रतीति-अनुभूति हो, उसे स्पर्शेन्द्रिय कहते हैं। स्पर्शेन्द्रिय का विषय स्पर्श है, जिसके ८ प्रकार हैं-गुरु-लघु (भारी-हलका), शीत-उष्ण, स्निग्ध-रूक्ष और कोमल-कठोर। इन आठ स्पर्शों वाले पदार्थ सचित्त, अचित्त और मिश्र होते हैं। इसलिए ८४३= २४ भेद हुए। फिर शुभ और अशुभ के भेद से इन चौबोसःके दो-दो भेद मिलकर ४८ भेद हुए । इन ४८ पर राग और दोष करने से स्पर्शेन्द्रिय के कूल विकार ४८x२=६६ हए।
आचार्य देव इन पाँचों इन्द्रियों के सभी विषयों और विकारों के वश में न होकर इन पर विजय प्राप्त करते हैं, इन्हें अंकूश में रखते हैं। इनकी ओर राग-द्वष भी नहीं करते।' वे भलीभाँति जानते हैं कि इन पाँचों इन्द्रियों के वश में होकर संसार के विविध प्राणी अकाल में ही अपने प्राण खो बैठते हैं, भयंकर दण्ड उन्हें प्रकृति से मिलता है, परलोक में भी दुर्गति होती है; धर्मध्यान और रत्नत्रय की साधना मिट्टी में मिल जाती है। पांचों इन्द्रियों के निग्रह से साधक मनोज्ञ और अमनोज्ञ में होने वाले राग-द्वष में निग्रह कर लेता है । फिर वह रूपादि के निमित्त से कर्मबन्ध नहीं करता; पूर्वबद्ध कर्मों की निर्जरा करता है।
१ जे इंदियाणं विसया मणुन्ना, न तेसु भावं निसिरे कयाइ।। न याऽमणुन्नेसु मणं पि कुज्जा, समाहिकामे समणे तवस्सी।
- उत्तरा० अ० ३२ गाथा २१ २ उत्तरा० अ० २६ सू० ६३ से ६७,