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________________ १३० : जैन तत्त्वकलिका-द्वितीय कलिका करने लगे हों तब आचार्य ही उन्हें मधुर वाक्यों से सुशिक्षित करके सही मार्ग पर लाता है, योग्य प्रायश्चित्त देता है। वह गच्छवासी साधु-श्रावकवर्ग को आत्मा का चिकित्सक है, संरक्षक है, योग्य प्रायश्चित्त देकर उनकी आत्मा की शुद्धि करता है। वह न तो स्वयं भटकता है और न धर्म संघीय सदस्यों को भटकने देता है। आचार्य अरिहन्त की भूमिका की ओर बढ़ने वाला वह महाप्रकाश है, जो अपने पीछे चलने वाले चतुर्विध संघ का मार्गदर्शन एवं नेतृत्व करता है। इसीलिए आचार्य को दीपक कहा गया है, जो ज्योति से ज्योति जलाता हुआ दूसरे आत्मदीपों को भी प्रदीप्त कर देता है।। वह तीर्थंकर देवों द्वारा प्ररूपित-प्रतिपादित तत्त्वों का प्रचारकप्रसारक एवं विवेचक होता है । वह संघ (गण) का नायक, जिनशासन का शृगार, संघ का प्रकाशस्तम्भ, वादलब्धिसम्पन्न, नाना प्रकार के सूक्ष्म ज्ञान का धारक, अलौकिक अध्यात्मलक्ष्मीसम्पन्न आदि अनेक गुणों से विभूषित होता है। पंचाचार-प्रपालक ही धर्माचार्य सत्पुरुषों द्वारा जो धर्मानुरूप व्यवहार या आचरण किया जाता है, वह आचार कहलाता है अथवा शिष्ट पुरुषों द्वारा मोक्ष या अक्षय सुख की प्राप्ति के लिए आचरणीय या उपादेय मार्ग आचार कहलाता है। ' जैन शास्त्रों में ऐसे पांच आचार बताए गए हैं-(१) ज्ञानाचार, (२) दर्शनाचार, (३) चारित्राचार, (४) तपाचार और (५) वीर्याचार । ये पांचों मिलकर पंचाचार कहलाते हैं। इस पंचाचार का स्वयं पालन करने वाले और दूसरों से पालन कराने वाले मुनिराज आचार्य कहलाते हैं । धर्माचार्य के लिए पालनीय पंचविध आचारों का स्वरूप आगे बताया जाएगा। आचार्य के मुख्य छत्तीस गुण वास्तव में आध्यात्मिक दृष्टि से सर्वांग सम्पन्न आचार्य वही हो सकता है, जिसमें निम्नलिखित छत्तीस' गुण हों-पांचों इन्द्रियों का संवर (निग्रह १ पंचिदियसंवरणो, तह नवविहबंभचेरगुत्तिधरो। ... चउविह कषाय मुक्को इअ अट्ठारस गुणेहिं संजुत्तो ॥१॥ पंचमहव्वयजुत्तो, पंचविहायारपालणसमत्थो। . पंचसमिओ तिगुत्तो, इइ छत्तीसगुणेहिं गुरु मज्झं ॥२॥ -आवश्यक सूत्र
SR No.002475
Book TitleJain Tattva Kalika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1982
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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