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गुरु स्वरूप : १२६
गरुतत्त्व में तीन पदों का समावेश ___ अरिहन्त और सिद्ध आत्मविकास की पूर्ण दशा-परमात्मदशा पर पहुँचे हुए हैं, अतः वे पूर्ण रूप से पूज्य होने से देवकोटि में गिने जाते हैं । यद्यपि आचार्य, उपाध्याय और साधु आत्मविकास की पूर्ण अवस्था अभी प्राप्त नहीं कर सके हैं, परन्तु पूर्णता के लिए प्रयत्नशील हैं। अतः वे अपने से निम्न श्रेणी के गृहस्थ साधकों के पूज्य और अपने से उच्च श्रेणी के अरिहन्त-सिद्ध-स्वरूप देवत्वभाव के पूजक होने से गुरुकोटि में सम्मिलित किये गये हैं।
आशय यह है कि आचार्य, उपाध्याय की तरह गणी, गणावच्छेदक, प्रवर्तक, स्थविर आदि सभी प्रकार के साधुगण साधुपद में समाविष्ट हो जाते हैं, अतएव ये सब गुरुपद से ग्रहण किये जाते हैं। ये सभी धर्मदेव हैं।
अब हम गुरुपद में समाविष्ट मुख्य तीन पदों (आचार्य, उपाध्याय और साधु) के स्वरूप का विस्तृत रूप से क्रमशः विश्लेषण करेंगे । . आचार्य का सर्वागीण स्वरूप
पंचपरमेष्ठी में तीसरा पद आचार्य का है। आचार्य तीर्थंकर का प्रतिनिधि होता है। आचार्य को धर्मप्रधान श्रमणसंघ का पिता कहा है।' वह ज्ञान, दर्शन, चारित्र (अहिंसा-सत्य आदि), तप और वीर्य रूप पाँचों आचारों का स्वयं दृढ़ता से पालन करता है और संघ के साधु-साध्वी तथा श्रावक-श्राविकावर्ग से आचार-पालन करवाता है।' पंचाचारपालन करने की प्रेरणा करता है।
___ आचार्य अपने आचार-व्यवहार से साधुधर्म का उत्कृष्ट रूप प्रमाणित करता है। वह पर-परिणति से हटकर स्व-परिणति में रमण करता है, अतएव तोत्र कषाय का उदय न होने से वह प्रशान्त, विनम्र, सरल, क्षमाशील और आत्मसन्तुष्ट रहता है; सुख-दुःख आदि द्वन्द्वों पर विजय पाने के लिए सतत प्रयत्नशील रहता है।
आचार्य संघ का आधार रूप होता है। गण या गच्छ में किसी प्रकार को शिथिलता आ गई हो, संघ का साधु-साध्वीवर्ग अथवा श्रावक-श्राविकावर्ग जब संयम यात्रा या धर्माचरण से भटक रहे हों, या अयुक्त आचरण
१ .आचार्यः परमः पिता ।
२ आचिनोति आचारयति वेति आचार्यः ।