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१२८ : जैन तत्त्वकलिका–द्वितीय कलिका
'जो अहिंसा आदि पांच महाव्रतों के धारक हों, धैर्य गुण सम्पन्न होने के कारण क्षधा-तषादि नाना परीषहों को सहने में तत्पर हों, भिक्षाचर्यामाधुकरी वृत्ति से ही जीवन यापन करने वाले हों, सदैव सामायिक (समभाव) में स्थिर रहते हों, अर्थात-निरव द्य (निर्दोष) चर्या वाले हों, और शुद्ध धर्म का यथार्थ उपदेश देने वाले हों, वे ही सद्गुरु पद के योग्य माने गए हैं।" सुगुरु के प्रति विनय : कल्याण परम्परा स्रोत
तीर्थंकरों की अविद्यमानता में सुगुरु ही एकमात्र ऐसे हैं; जो समस्त संघ का जीवन निर्माण करते हैं, तीर्थंकरों के ज्ञान और दर्शन का उनके सिद्धान्तों और उपदेशों को आम जनता में प्रचार-प्रसार करते हैं। शास्त्रों के गम्भीर ज्ञान की भी प्राप्ति गुरुदेव से होती है, परन्तु कब ? जबकि व्यक्ति विनम्र होकर उनके चरणों में अपने आपको समर्पित कर दे, उनके प्रति विनम्र-भक्ति हृदय से करे, उनकी सेवा शुश्रूषा करे, आज्ञा पालन करे, उनके चरणों में वन्दन-नमन करे । गुरुदेव के प्रति विनय भक्ति से व्यक्ति को कितना महान् लाभ मिलता है ? यह वाचकवर्य आचार्य उमास्वाति के शब्दों में सुनिये
विनयफलं शुश्रूषा, गुरुशुश्र षाफलं शुतज्ञानम् । ज्ञानस्य फलं विरतिः, विरतिफलं चाश्रवनिरोधः॥ संवरफलं तपोबलमथ तपसो निर्जराफलं दृष्टम् ।। तस्मात् क्रियानिवृत्तिः क्रियानिवृत्ते यो गित्वम् ॥ योगनिरोधात् भवसंततिक्षयः संततिक्षयान्मोक्षः।
तस्मात्कल्याणानां सर्वेषं भाजनं विनयः ॥
अर्थात्-गुरुदेव के प्रति विनय का भाव रखने से सेवाभाव की जागृति (अथवा धर्मश्रवणेच्छा) होतो है; गुरुसेवा से शास्त्रों के गंभीर ज्ञान की प्राप्ति होती है; ज्ञान का फल पापाचरण से निवृत्ति है और पाप निवृत्ति का फल आश्रवनिरोध (संवर) है। संवर का फल तपोबल, तप का फल निर्जरा है, और निर्जरा द्वारा क्रिया निवृत्ति होती है। क्रिया निवृत्ति से अयोगी (मन, वचन, काया के योगों का निरोध) अवस्था प्राप्त होती है। योग निरोध से भवपरम्परा का अन्त हो जाता है जिससे मोक्ष की प्राप्ति होती है । अतः गुरु-विनय का फल समस्त कल्याणों का कारण है।
१ 'महाव्रतधरा धीरा भक्ष्यमात्रोपजीविनः ।
सामायिकस्था धर्मोपदेशका गुरवो मताः ॥'
-योगशास्त्र प्र. २, श्लोक ८