________________
गुरु-स्वरूप : १२७
जैन दृष्टि से गुरु का लक्षण
आज विश्व में गुरुओं की भरमार है। इनमें सच्चे गुरु कितने हैं और गुरुनामधारी कितने ? इसका पता लगाना सर्वसाधारण के लिए अत्यन्त कठिन हो गया है ।' अकेले भारत में ही लाखों गुरु हैं।
'गुरु कैसा होना चाहिए ?' इस सम्बन्ध में प्रत्येक धर्म ने कुछ न कुछ विचार अवश्य किया है। जैनधर्म ने 'गुरु' का एक मानदण्ड निश्चित किया है, उसके अनुसार उसने उन सब तथाकथित गुरुओं को गुरु मानने से इन्कार किया है-जो भांग, गाँजा, अफीम, मद्य आदि नशीली चीजों का सेवन करते हैं, जो पुत्र, कलत्र, धन धान्य स्वर्ण-चांदी, होरा-मोती, रत्न, हाट, हवेली, पशुओं एवं क्षेत्र का ममत्वपूर्वक संग्रह-परिग्रह रखते हैं जो मांस-मदिरा आदि अभक्ष्य पदार्थों का सेवन करते हैं, जो लोभी हैं-सब प्रकार की आकांक्षाएँ रखते हैं, मंत्र-तंत्र-ज्योतिष, निमित्त आदि से अपनी जीविका चलाते हैं, तथा मिथ्या एवं विषयासक्ति-प्रेरक धर्म के प्रचारक हैं। ऐसे व्यक्ति गुरु पद के योग्य नहीं, वे सद्गुरु नहीं, कुगुरु हैं ।
कुगुरु पत्थर की नौका से समान है, जो स्वयं भी डूबता है, पतन के गर्त में गिरता है और दूसरों को भी डुबोता है, आश्रय लेने वालों को भी पतन के गढ्डे में धकेल देता है । अतः मुमुक्षु एवं धर्मपिपासु व्यक्ति को सद्गुरु की जाँच-परख करके तभी उसकी शरण या उसका अवलम्बन लेना चाहिए। सद्गुरु की खोज करके जो शरण लेता है या उनकी सेवा-भक्ति उपासना करता है, वही सद्धर्म को पाकर संसार सागर को पार करने में समर्थ होता है। इसके विपरीत आरम्भ-परिग्रहमग्न कुगुरु दूसरों को कैसे तार सकता है ? जो स्वयं दरिद्र है, वह दूसरे को वैभव-सम्पन्न कैसे बना सकता है। ___ आचार्य हेमचन्द्र ने सुगुरु का लक्षण इस प्रकार किया है
१ गुरवो बहवः सन्ति शिष्यवित्तापहारकाः ।
कृपालवो विरलाः सन्ति शिष्यचित्तापहारकाः ॥ २ सर्वाभिलाषिणः सर्वभोज़िनः सपरिग्रहाः ।
अब्रह्मचारिणो मिथ्योपदेशा गुरवो न तु ॥ -योगशास्त्र, प्र. २, श्लोक ९ परिग्रहारम्भमग्नास्तारयेयुः कथं परान् । स्वयं दरिद्रो न परमीश्वरीकर्तु मीश्वरः ॥
-योगशास्त्र (हेमचन्द्राचार्य) प्र. २, श्लोक १०