SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 193
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गुरु-स्वरूप : १२५ आशय यह है कि ये धर्मगुरु मुमुक्षु एवं धर्मपिपासु आत्माओं के लिए आराध्य, उपास्य और धर्मपथ प्रदर्शक हैं । इसलिए ये 'धर्मदेव ' कहलाते हैं । शास्त्र में बताया गया है कि दो प्रकार से आत्मा को धर्म की प्राप्ति या धर्म के स्वरूप की उपलब्धि हो सकती है - (१) सुनकर और ( २ ) विचार करके । ' जब तक व्यक्ति धर्मशास्त्रों का श्रवण ही नहीं करता, तब तक धर्म तत्त्व पर मनन- चिन्तन और ग्रहण एवं अनुसरण कैसे कर सकता है ? कई लोग कहते हैं कि 'बहुत से मनुष्यों ने श्रवण किये बिना ही केवल भावनाओं द्वारा धर्माचरण करके अपना आत्मकल्याण किया है, इसलिए धर्मशास्त्र श्रवण की क्या आवश्यकता है ?" इसका समाधान यह है कि भावना भी पहले श्रवण किये हुए धर्मादि तत्त्वों की ही हो सकती है । भावना के द्वारा आत्मकल्याण करने वालों ने या तो पहले कभी न कभी इस जन्म में या पूर्वजन्मों में धर्मादि तत्त्व विषयक श्रवण अवश्य किया होगा; अन्यथा, . कल्याणकारी पथ में प्रवृत्त होने तथा पापकारी पथ से निवृत्त (विरत ) होने की भावना हो नहीं सकती। क्योंकि जैसा एक कवि ने कहा है है सर्वश्रुत परिचित अनुभूत भोग-बन्धन की कथा । पर से जुदा एकत्व की उपलब्धि केवल सुलभ ना ॥ निष्कर्ष यह है कि पूर्वजन्मों में अथवा इस जन्म में जिन जीवों ने पहले इस प्रकार के धर्मप्रेरक वचन सुने हुए हैं, तभी वे अनुप्रेक्षापूर्वक भावनात्मक चिन्तन करके धर्म की प्राप्ति और मोक्षमार्ग में प्रवृत्ति करते हैं । और धर्म (प्रेरक वचनों का) श्रवण प्रायः धर्मदेवों के मुख से ही हो सकता है । इसलिए धर्मदेव धर्मादि तत्त्वों के सच्चे व्याख्याता, धर्मोपदेशक, धर्मनिर्देशक, धर्म सिद्धान्त-प्ररूपक एवं धर्म-प्रेरक होते हैं । यदि जगत् में ऐसे धर्मोपदेशक धर्मदेव न हों तो धर्मप्रचार नहीं हो सकता, धर्मतत्त्व से अनभिज्ञ या विमुख लोगों को धर्म-श्रवण का अवसर मिल नहीं सकता। इसलिए शुद्धधर्म के सन्देशवाहक इन धर्मगुरुओं का जगत् पर महान् उपकार है । ये जगत् से कम से कम लेकर, अधिक से अधिक बहुमूल्य धर्मदान देते हैं । इसीलिए षडावश्यक में तीर्थंकर देवों के स्तवनउत्कीर्त्तन के पश्चात् तीसरा आवश्यक 'गुरु वन्दन' का रखा गया है । गुरुपद अत्यन्त महनीय, पूजनीय, वन्दनीय और स्तुत्य है । १ 'सोच्चा अभिसमेच्चा' - स्थानाग, स्थान २ -
SR No.002475
Book TitleJain Tattva Kalika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1982
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy