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१२२ : जैन तत्त्वकलिका
देवत्व को प्राप्त करने वाला ही सच्चादेव
तात्त्विक दृष्टि से शरीर में रहा हुआ आत्मा ही अपने मूलस्वरूप में सत्ता रूप से विद्यमान परमात्मदेव है। परन्तु वर्तमान में वह कर्मावरणों से आवृत होने के कारण अशुद्धभाव में विद्यमान है। जिसके कारण वह भवभ्रमण करता है। वह अपनी अशुद्धता को दूर कर अपने स्वाभाविक स्वरूप में प्रकाशित हो सकता है। अर्थात्-वीतरागता को सिद्ध करके देवत्व को प्राप्त कर सकता है। एक प्राचीन आचार्य ने इसी तथ्य को 'निम्नोक्त श्लोक द्वारा अभिव्यक्त किया है
'देहो देवालयः प्रोक्तः जीवो देवः सनातनः ।
त्यजेदज्ञाननिर्माल्यं, सोऽहंभावेन पूजयेत ॥' देह ही देवालय कहा गया है, जीव उस देवालय में स्थित, सनातन, देव है । अतः अज्ञानरूपी कलंक-दोष का त्याग करके 'सोऽहंभाव' (मैं—आत्मा वही-परमात्मा हूँ, इस भाव) से आत्मपूजा करे, वही परमात्मपूजा है।'
मनुष्य पूर्वोक्त बीस स्थानकों को आराधना में सत्पुरुषार्थ द्वारा अपने में इस प्रकार का वीतरागदेवत्व प्रकट कर सकता है, यही तीर्थंकरदेवों का कथन है।
यह है, पूर्वोक्त देवतत्त्व का सर्वांगीण स्वरूप, जिसे हृदयंगम करके व्यक्ति अपना कल्याण कर सकता है।