________________
सिद्धदेव स्वरूप : १२१
और ज्ञान, ये आठ प्रशस्त एवं पवित्र सत्पुष्प कहलाते हैं। इन गुणों का पालन करके बहुमानपूर्वक इन पुष्पों को देवाधिदेव को अर्पण करना-चढ़ाना ही वास्तव में शुद्धपूजा कही गई है।'
इस प्रकार की शुद्धपूजा के लिए ही भावपूजा है। भावपजा प्रभुगुणभक्ति वीतराग गुणप्रणिधान के निमित्त से बढ़ती है। ऐसे भावपूजक भक्त के हृदय में सदैव भक्तिरस बहता रहता है। स्थान और काल की मर्यादाएँ भावपूजा में नहीं होती। भक्तजन रसोल्लासपूर्वक जब चाहे तब और जहाँ चाहे वहाँ, भगवान् की ऐसी भावपूजा कर सकता है । समझना चाहिए ऐसा व्यक्ति नीतिमत्ता और सत्यनिष्ठा के साथ व्यवसाय एवं अन्य कार्य करते समय भी उन सद्गुणों के रूप में भावपूजा कर रहा है।
ऐसा भावपूजक भक्त जब तक वीतरागता की पूर्ण उज्ज्वल स्थिति प्राप्त न हो, तब तक अहर्निश ऐसी प्रार्थना करता रहता है-'मेरा वीतराग के सिवाय कोई अन्य देव नहीं है । वही मेरा अन्तिम ध्येय है। भव-भव में सदैव सतत वीतरागदेव में उनके सद्गुणों में मेरी भक्ति बनी रहे, ताकि मैं किसी भी समय दुगुणों में या परभाव में न फंस जाऊँ। त्रिकाल और त्रिलोक में यदि कोई भवचक्र से या दुःखचक्र से बचाने वाला है तो वह एकमात्र वीतरागप्रभु का (या वीतरागता) का अवलम्बन ही है।'
वह वीतरागदेव को वन्दन भी इस रूप में करता है कि "कर्मरूपी पर्वतों का भेदन करने वाले, रागद्वषविजेता, विश्वतत्त्वों के ज्ञाता, परमतत्त्व के प्रकाशक एवं मोक्षमार्ग पर ले जाने वाले वीतरागदेव को उनके जैसे गुणों की उपलब्धि के लिए वन्दन करता हूँ।'' . निष्कर्ष यह कि भावपूजा अपनी दुष्प्रकृति, दुष्प्रवृत्ति, बुरा स्वभाव, बुरी आदतों और अपलक्षणों को दूर करके वीतरागरूप ध्येयानुसार वीतरागता के आत्मविकासरूप सद्गुणों को जीवन व्यवहार में-आचरण में प्रकट करने में है । ऐसे उत्तम भावों को विकसित करके सदाचारपूर्ण जीवन व्यतीत करने की ओर प्रेरित करना ही भावपूजा का मुख्य उद्देश्य है।
___ भावपूजक वीतरागदेवतत्त्व को अन्तिम ध्येय से रूप में मानकर वीतराग परमात्मा के स्मरण में सतत निरत रहकर वीतरागता को प्राप्त कर लेता है। .
१ 'मोक्षमार्गस्य नेतारं भेत्तारं कर्मभूभृताम् । ज्ञातारं विश्वतत्त्वानां, वन्दे तद्गुणलब्धये ॥
-तत्त्वार्थ-सर्वार्थसिद्धि, मंगल प्रकरण