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________________ १२० : जैन तत्त्वकलिका ऐसी प्रबल भावना (प्रार्थना ) स्वतः सफल होती है । ऐसी भावसमाधि, सिद्धि या बोधि को प्रार्थना भक्ति के वश होकर करता है तो अनुचित नहीं है, यह प्रार्थना प्रकारान्तर से वीतरागता और मुक्ति की प्राप्ति की ही है । कर्मों से रहित होने की है, इसलिए उचित ही है । ऐसी पवित्र प्रार्थना से मन में वीतरागदेव रूप ध्येय तक पहुँचने का संकल्पबल प्रबल होता है तथा चित्तशुद्धि, आस्तिकता, जीवन को पवित्र और मोक्षमार्ग के लिए पुरुषार्थी बनाने की तीव्र अभिलाषा पैदा होती है । ऐसी दृढ़धर्मिता के बल से व्यक्ति अपने कल्याण के साथ-साथ अनेक भव्यआत्माओं का कल्याण करने में भी निमित्त बनता है । वीतरागदेव की भावपूजा क्यों और क्यों ? वीतरागदेव - परमात्मा का भक्तिपूर्वक स्मरण, वन्दन, स्तवन, उपासना और प्रार्थना करना ही वास्तविक भावपूजा है । वस्तुतः वीतरागदेव के साथ तादात्म्य साधने के आन्तरिक प्रयत्न का नाम ही भावपूजा है । भावपूजा भावना में परिवर्तन लाती है, सद्गुणों और सत्कार्यों की भावना को जागृत करके चित्त को आनन्दित और सद्वृत्तियों से समृद्ध बनाती है | भावपूजा का ओज जैसे-जैसे खिलता जाता है, वैसे-वैसे चित्तशुद्धि और आत्मकल्याण की भावना अधिकाधिक विकसित होती जाती है । अतः यह निःसंकोच कहा जा सकता है कि भावपूजा आन्तरिक दोषों को दूर करने की, विचारों की संशुद्धि करने की, भावना के अभ्यास एवं संवर्धन की तथा आत्मशक्ति को विकसित एवं जागरित करने की सर्वश्रेष्ठ पगडंडी है | भावपूजा परम श्रयः साधिका और आत्मविकासकारिणी माता है । भावपूजा क्या है ? यह जानने के लिए आचार्य हरिभद्रसूरि के अष्टक के ये श्लोक पढ़िए 'अहिंसा सत्यमस्तेयं गुरुभक्तिस्तपो ज्ञानं एभिर्देवाधिदेवाय ब्रह्मचर्य मलोभता । सत्पुष्पाणि प्रचक्षते ॥ दीयते पालना या तु सा वं बहुमान - पुरःसरा । शुद्ध त्युदाहृता । ' अर्थात् - 'अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, निर्लोभता, गुरुभक्ति, तप १ (क) हरिभद्रीय अष्टक प्रकरण, तृतीय अष्टक (ख) देखिए भगवद्गीता में भाव पूजा स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धि विन्दतिमानवः' ।
SR No.002475
Book TitleJain Tattva Kalika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1982
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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