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सिद्धदेव स्वरूप : ११६
भक्त के हृदय में पैदा होता है; उसके प्रभाव से वह भक्तिपात्र के गुणों के प्रति प्रेमविभोर होकर उसमें तन्मय हो जाता है, सदैव सतत उसके गुणों का चिन्तन करता हुआ। उन गुणों को आत्मा में धारण करने का प्रयत्न करता रहता है । यही ज्ञानपूर्वक भक्तिभाव है।
___ जिसमें ऐसा उन्नत भक्तिभाव होता है, वह अपने भक्तिपात्र (वीतराग देव) की स्तुति, गुणगान, गुणों का चिन्तन आदि करता है, उसकी आज्ञानुसार अपने आचरण में संशोधन करता है, अपने भक्तिपात्र का अनुसरण करता है, उसकी आज्ञा के अधीन रहता है, अपना सम्पूर्ण व्यक्तित्व उसको समर्पित कर देता है। इससे आगे बढ़कर अपने आराध्यदेव जैसा ही स्वयं बनने के लिए उत्कण्ठित हो जाता है, उसकी पदपंक्तियों का अनुसरण करते हुए उसके जैसा बनने का प्रयत्न करता है। उसके जैसा सद्गुणी, सच्चारित्री, परमज्ञानी बनने हेतु वह अपना जीवन उसके चरणों में न्योछावर कर देता है।
इस प्रकार की ज्ञानसंयुक्त भक्ति के बल पर ही समर्पण की भावना से पूर्वसंचित कर्म नष्ट हो जाते हैं। वीतरागदेव के प्रति बहुमान से आत्मगण प्रगट होते हैं । अन्ततोगत्वा उस आत्मा को भक्तिरस में निमग्न होने से वीतराग परमात्मा के गणों के प्रति तन्मयता प्राप्त हो जाती है, जिससे वह भक्तिरस में सराबोर होकर उत्तम समाधि की दशा प्राप्त कर लेता है।
दूसरी बात यह है कि वीतरागदेव की भक्ति के आवेग में जब भक्त मुग्ध हो जाता है, तब उस समर्पित व्यक्ति के लिए अपने जीवन को पवित्र और आचरण को शुद्ध बनाने का मार्ग भी सरल बन जाता है। इस तरह भक्ति का पर्यवसान आचरण-चारित्र की शुद्धि में आता है। यही वीतराग देव की भक्ति की सफलता का रहस्य है। वीतरागदेव का भक्त होकर जो आचरण मलिन रखता है, वह भक्ति का क-ख-ग भी नहीं जानता। निर्मल परमात्मा के साथ मलिन आत्मा का मेल ही नहीं बैठ सकता।
यद्यपि 'सिद्धा सिद्धि मम दिसंत' (सिद्ध भगवान् मुझे सिद्धि मुक्ति प्रदान करें) 'आरुग्ग बोहिलाभं समाहिवरमुत्तमं दितु' (मुझे आरोग्य, बोधिलाभ और श्रेष्ठ ज्ञानरूपी भावसमाधि दें)' ऐसी प्रार्थना से वीतरागदेन रागद्वषरहित होने से' फलप्रदाता नहीं होते, तथापि भक्तिरस में निमग्न, प्रभुचरणों में समर्पित, वीतरागता के आचरण के लिए तत्पर भक्तजन की
१ चतुर्विंशतिस्तव पाठ