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११८ : जैन तत्त्वकलिका
ईश्वर के उपदेश को न मानने का ( आज्ञाविराधना का ) परिणाम है ।"" अब रहा यह प्रश्न कि अरिहन्तदेव तथा सिद्ध परमात्मा की स्तुति क्यों की जाए ?
इस विषय में हम पिछले पृष्ठों में पर्याप्त प्रकाश डाल चुके हैं । संक्षप में इस प्रश्न का यही समाधान है कि जगत् के प्रति ऐसे निरपेक्ष निःस्पृह परमोपकारी अनन्तगुणसम्पन्न वीतरागदेवों के प्रति कृतज्ञताप्रकाशन करना परम धर्म है । यद्यपि उससे वीतरागप्रभु को कोई लाभ या हानि नहीं है, उससे लाभ है तो स्तुतिकर्ता को ही है; 'गुणिषु प्रमोदम्' की भावना से उन देवाधिदेवों के पवित्र गुणों में अनुराग उत्पन्न होता है । गुणानुवाद से उस व्यक्ति की आत्मा भी उन्हीं गुणों को ग्रहण करने योग्य बन जाती है ।
यद्यपि निजगुणनिमग्न, सदा सुखरूप वीतराग सर्वज्ञदेव किसी पर प्रसन्न या अप्रसन्न नहीं होते, तथापि उनकी स्तुति एवं गुणानुवाद से व्यक्ति में अवगुण दूर होकर आत्मगुणों का प्रकाश होता है; चित्त में प्रसन्नता होती है, तत्काल दुविचारों के हट जाने से चित्त शुद्धि भी होती है ।
जिस प्रकार मन्त्र के पद सर्प आदि का विष उतारने में समर्थ होते हैं; चिन्तामणिरत्न, रत्न के स्वामी की मनोवाञ्छा पूर्ण करने में सहायक होता है, उसी प्रकार वीतराग परमात्मा की स्तुति भी तत्काल आत्मा में समता एवं शान्ति का संचार करती है । जिससे व्यक्ति वीतराग परमात्मा को अपना ध्येय बना लेता है और फिर वह सिद्धपद प्राप्ति के योग्य भी हो जाता है ।
वीतराग भक्ति का सफल रहस्य
वीतरागदेव की भक्ति में क्यों और क्या का प्रश्न ही नहीं रहता, बशर्ते कि वह व्यक्ति, भक्तिपात्र ( वीतरागप्रभु) के स्वरूप को पूर्णतया जानले हृदयंगम करले; क्योंकि जिसे हमें अपनी भक्ति अर्पित करनी है, उसे पहचाने बिना उसके प्रति भक्तिभाव उत्पन्न ही हो कैसे सकता है ? भक्तिपात्र की विशिष्टता का ज्ञान होने के बाद उसके प्रति जो सात्त्विक शुभ आकर्षण
१ ईश्वरः परमात्मैव, तदुक्तव्रतसेवनात् । यतो भुक्तिस्ततस्तस्याः कर्त्ता स्याद् गुणभावतः ।। तदनासेवनादेव यत् संसारोऽपि तत्त्वतः । तेन तस्याऽपि कर्तृत्वं कल्प्यमानं न दुष्यति ।।
- शास्त्रवार्तासमुच्चय, स्तवक ३