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सिद्धदेव स्वरूप : ११७
वास्तव में परमात्मवाद के विषय में यह प्रश्न बहुत ही महत्वपूर्ण है। निश्चयनय की दृष्टि से तो ऐसा ही है, परन्तु व्यवहारनय की दृष्टि से देखें तो वीतराग परमात्मा को न मानने या अवलम्बन न लेने से हमारी अपनी ही बहुत बड़ी आध्यात्मिक हानि है। वीतराग देव को मानने और उनका अवलम्बन लेने से व्यक्ति में धर्म-भावना विकसित होती है, धर्म-साधना होती है, उनकी उपासना से आत्मविशुद्धि तथा आत्मिक सद्गुणों का विकास होता है। इन सबके अनुपात में हमारे कर्म (भाग्य) पर भी प्रभाव पड़ता है। हमारे जो अशुभकर्म (दुर्भाग्य) हैं, उन्हें शुभकर्म (सद्भाग्य) में परिणत करने का अथवा अशुभकर्मों को शुभभावों द्वारा क्षय करने का. यही सर्वोत्तम राजमार्ग है।
जो व्यक्ति वीतराग सर्वज्ञदेव की धर्मानुप्राणित आज्ञाओं को न मानकर निरंकुश होकर धर्मविरुद्ध या वीतराग की आज्ञाविरुद्ध प्रवत्ति करता है, यद्यपि उस पर वीतरागप्रभु शाप नहीं बरसाते, न ही उसे रोकते हैं, किन्तु भगवदाज्ञाविरुद्ध प्रवत्ति से उसकी बहुत बड़ी हानि है—अनन्तकाल तक संसार परिभ्रमण। इसीलिए आचार्य हेमचन्द्र ने अनुभव की भाषा में कहा
__"वीतराग प्रभो ! आपकी सेवा-भक्ति क्या है ? आपकी आज्ञाओं का परिपालन ही आपकी भक्ति-सेवा है। क्योंकि आपकी आज्ञाओं की आराधना मोक्षदायिनी है, और विराधना है-भवभ्रमणकारिणी।"१
आचार्य हरिभद्रसूरि ने शास्त्रवार्ता समुच्चय में औपचारिक रूप से ईश्वर कत्त त्ववाद की संयोजना करते हुए दूसरी तरह से इस प्रश्न का समाधान किया है
___ "राग-द्वेष मोहरहित पूर्ण वीतराग, पूर्णज्ञानी परमात्मा ही ईश्वर है और उसके द्वारा प्रतिपादित मोक्षमार्ग (सम्यग्ज्ञान-दर्शनचारित्र) की आराधनासेवना करने से मुक्ति प्राप्त होती है । इस दृष्टि से उपचार से मुक्ति का दाता वीतराग परमात्मा हो सकता है तथा उक्त परमात्मा द्वारा निर्दिष्ट मोक्षमार्ग को आराधना न करने से जो भवभ्रमण करना पड़ता है, वह उक्त
१ 'वीतराग ! तव सपर्यास्तवाज्ञा-परिपालनम् ।
आज्ञाराद्धा विराद्धा च, शिवाय च भवाय च ॥'
-वीतरागस्तव १६-४