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________________ सिद्धदेव स्वरूप : ११५ परमात्मा की सर्वज्ञता से लाभ उपर्युक्त शंका का समाधान यह है कि माना कि वीतराग सर्वज्ञ प्रभु अपने ज्ञान में त्रिकाल-त्रिलोक के भावों को यथावत् जानते हैं, परन्तु उनका ज्ञान जीव की क्रियाओं पर प्रतिबन्धक नहीं होता। जैसे-सूर्य पृथ्वी पर प्रकाशित होता है, किन्तु उसका प्रकाश किसी जीव की क्रिया को रोक नहीं सकता, सभी जीव अपनी इच्छानुसार प्रवृत्ति कर सकते हैं, उसी प्रकार सर्वज्ञ परमात्मा सर्व जीवों के भावों को जानते-देखते हैं, परन्तु वे या उनका ज्ञान किसी जोव की क्रिया को रोक नहीं सकता, सभी जीव अपनी इच्छानुसार प्रवृत्ति करते हैं। दूसरी बात-सर्वज्ञ परमात्मा ने जो कुछ अपने ज्ञान में देखा है, वही होगा, अन्यथा नहीं; यह बात तो ठीक है, किन्तु उन्होंने अपने ज्ञान में हमारे विषय में क्या-क्या जाना-देखा है, यह तो कोई भी छद्मस्थ (अल्पज्ञ) नहीं जानता, अतः प्रत्येक सर्वज्ञ परमात्म देव के भक्त का कत्तव्य है कि वह उपर्युक्त सिद्धान्त पर दृढ़ विश्वास रखकर भगवत्प्रतिपादित मोक्षमार्ग में सत्पुरुषार्थ द्वारा कर्मक्षय करे, अथवा शुभकार्यों में प्रवत्ति करे। परमात्मवाद और परमात्मा सर्वज्ञ द्वारा प्रतिपादित कमवाद जैसे महान् सिद्धान्तों का निष्क्रियता के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है। ये निष्क्रियता का पाठ नहीं पढ़ाते, अपितु कर्त्तव्यपरायणता की प्रेरणा देते हैं। परमात्मवाद के सिद्धान्त में बीत गग या मोक्षमार्गी बनने के लिए परमात्मा का अवलम्बन लेने की ध्वनि है, अथवा रत्नत्रयरूप धमसाधना द्वारा परमात्मपद-प्राप्ति या वीतरागता-प्राप्ति को अभिव्यञ्जना है। कर्मवाद के सिद्धान्त में सत्कार्यों या शुद्ध धर्माचरण द्वारा सुभाग एवं महाभाग बनने की ध्वनि है। सर्वज्ञ परमात्मा का वचन है-'कृतकर्मों का फल भोगे बिना कोई छुटकारा नहीं है।' इसके अनुसार जब अशुभकर्म उदय में आ जाएँ तब दोनों नयों का अवलम्बन लेना चाहिए। निश्चयनय का अवलम्बन लेकर चित्त में शान्ति, समता और समाधि उत्पन्न करनी चाहिए और व्यवहारनय का अवलम्बन लेकर या तो शुभ कार्यों की ओर प्रवत्त होना चाहिए, अथवा कर्मक्षय करने की चेष्टा करनी चाहिए ! अथवा सर्वज्ञपरमात्मा का ज्ञान सर्वत्र व्याप्त हो रहा है; अर्थात्-वे अपने ज्ञान द्वारा त्रिकाल -त्रिलोक के भावों को यथावत् देख रहे हैं, उनसे हमारी कोई भी क्रिया या प्रवत्ति छिपी नहीं रह सकती, न ही उनसे कोई
SR No.002475
Book TitleJain Tattva Kalika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1982
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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