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११४ : जैन तत्त्वकलिका
भी वह अपने में निहित ज्ञान को प्रकट करने वाले प्रबल निमित्त उक्त अध्यापक का हृदय से उपकार मानता है, उनकी प्रशंसा, भक्ति-बहमान, नमन आदि करता है, उसी प्रकार वीतराग देवरूप ध्येय के निमित्त रो एक दिन स्वयं वीतराग बन जाने वाला या वीतराग प्ररूपित मार्ग से सुगति परमात्मपद या सिद्धगति प्राप्त कर लेने वाला मुमुक्षु भी उनके प्रति कृतज्ञ होकर उनका कीर्तन, नमन, वन्दन, भक्ति-बहुमान आदि करे, इसमें कोई अयुक्त नहीं है। परमात्मवाद का सदुपयोग और दुरुपयोग
पूर्वोक्त तथ्यों से यह प्रतिफलित हो जाता है कि परमात्मवाद अर्थात् ईश्वरवाद (परमात्मा के अस्तित्व की मान्यता) मनुष्य के अन्तःकरण को निर्मल बनाने में, चरित्र गठन में तथा आत्मविकास की प्रेरणा प्राप्त करके सन्मार्ग की ओर प्रगति करने में, जीवन की ग्लानि दूर करने, आत्मा को धैर्य बंधाने, आश्वासन देने तथा संतोष और शान्ति प्रदान करने में अत्यन्त उपयोगी सिद्ध हआ है। शुद्ध परमात्मोपासक व्यक्ति प्रभु के प्रति अपनी निर्मल भक्ति को विकसित करके अपनी निष्ठा और श्रद्धा को पुष्ट करके संकट, आपत्ति, कष्ट और पीड़ा के समय उनके निवारण का उपाय करता हुआ भी जब सफलता प्राप्त नहीं कर पाता, तब निराश और हताश होने के बदले अपनी आत्मा को धैर्य और आश्वासन देता है कि- "होगा वही, जो सर्वज्ञ वीतराग देव ने अपने ज्ञान में देखा है, फिर घबराता क्यों है ? उन्होंने जो कर्म सिद्धान्त बताया है, उसके अनुसार भी जैसे—मेरे कर्म बांधे हुए होंगे, तदनुसार ही फल मिलेगा; आदि-आदि।" वह विकट से विकट परिस्थिति में भी सर्वज्ञ प्रभु के ज्ञान से कर्म का खेल समझकर मन को समत्व में स्थिर रख सकेगा। वह दुःख के समय तडफेगा नहीं और सुख में अभिमान से फूलेगा नहीं। ___कुछ लोग यह शंका प्रकट करते हैं कि जब अनन्तज्ञानी सर्वज्ञ वीतराग देव त्रिकाल त्रिलोक के भावों को हस्तामलकवत् जानते-देखते हैं, तब जीव के द्वारा पुरुषार्थ करने की स्वतंत्रता और पुरुषार्थ भी व्यर्थ सिद्ध होगा क्योंकि अनन्तज्ञानी पुरुषों ने ज्ञान में जो कुछ जाना-देखा है, वही होगा; उसके अतिरिक्त तो कुछ होगा नहीं; फिर पुरुषार्थ करने की क्या आवश्यकता है ? जीव स्वतंत्रतापूर्वक कुछ कर भी सकेगा क्या ?
यह परमात्मवाद का दुरुपयोग है जिसे जीव अज्ञानतावश करता है ।