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सिद्धदेव स्वरूप : ११३
भो रागादि विघ्नदोष-निवारक और आत्मकल्याणकारक बन जाते हैं । जैसे-कोई व्यक्ति 'जिन-ध्यान' करता-करता वर्ण विपर्यय करके 'निज ध्यान' करने लगता है। इसी प्रकार तीर्थंकर देव का नामस्मरण भी आध्यात्मिक विकासकारक हो सकता है। देवत्व को जगाने के लिए
योगशास्त्र में बताया गया है कि जिस-जिस भाव से जिस-जिस स्थान में आत्मा को योजित किया जाता है, उस-उस निमित्त को प्राप्त कर उसउस स्थान में वह तन्मयता प्राप्त करता है। जैसे-स्फटिकमणि के आसपास लाल, पीली, हरी आदि वस्तुएँ रखने से वह स्फटिक मणि उस रंग की दिखाई देती है, उसी प्रकार आत्मा को भी जैसे-जैसे भावों द्वारा प्रेरित किया जाए, उस रूप में वह ढलती जाती है। शरीर में रहा हुआ आत्मा तात्त्विक दष्टि से तो परमात्मा है, देव है, परन्तु कर्मों से आवत होने से अशुद्धभाव में विद्यमान है, जिसके कारण भवचक्र में भ्रमण करता है। अगर वह भावों से अपनी आत्मा को शुद्धभाव में आत्मस्वभाव में प्रेरित करे तो वह अपने स्वाभाविक स्वरूप को प्रकट कर सकता है, अपने में सोये हुए देवत्व-- परमात्मत्व को जगा सकता है। अरिहन्त एवं सिद्धदेव हमें अपने देवत्व को प्राप्त कराने के लिए प्रेरक हैं-प्रकाश स्तम्भ हैं, आदर्श हैं। परम उपकारी वीतरागदेव के प्रति कृतज्ञता
वीतरागदेव हममें देवत्व जगाने में प्रबल निमित्त है। इसलिए जिस ध्येय या आदर्श के निमित्त से चित्तशुद्धि, आत्मशद्धि तथा आत्मविकास होता है, अन्त में वीतरागत्व एवं परमात्मत्व प्रकट होता है, उस महान् उपकारी परमात्मदेवों के उपकारों के प्रति कृतज्ञ होकर उनका गुणगान, कीर्तन, स्तुति, आराधना-उपासना, भक्ति आदि करना व्यवहारनय को दृष्टि से आवश्यक है।
जिस प्रकार विद्यार्थी में स्वयं में (बुद्धि में) ज्ञान तो भरा हुआ है, किन्तु उस ज्ञान को प्रकट करने में अध्यापक प्रबल निमित्त है। विद्यार्थी अध्यापक के सहारे से पुस्तक पढ़ने लगता है और एक दिन वह विद्वान् बनकर स्वयं अध्यापक बन जाता है। अध्यापक एवं विद्वान् बन जाने पर
१ येन येन हि भावेन युज्यते यंत्रवाहकः ।
तेन तन्मयतां याति, विश्वरूपो मणिर्यथा ।
-योगशास्त्र प्र०६, श्लोक १४