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________________ ११२ : जैन तत्त्वकलिका करने से आत्मप्रदेशों से क्रोध, मान, माया और लोभ के परमाणु हटकर सिर्फ समत्वभाव ही प्रस्फुटित हो जाते हैं । एक कहावत लोक में प्रसिद्ध है कि लट के सामने बार-बार गुञ्जार करती हुई भ्रमरी के ध्यान से भ्रमरी के द्वारा काट लेने पर वह लट भी भ्रमरी बन गई । " इसी प्रकार वीतराग के सतत ध्यान से व्यक्ति वीतराग बन जाए इसमें कोई आश्चर्य नहीं । महाराणा प्रताप के नाम की चर्चा चलती है, तब कायर हृदय में भी वीरता का संचार हो जाता है । क्या महाराणा प्रताप उन कायरों में वीरता की बिजली भरते हैं ? नहीं, व्यक्ति की मनोभावना एवं विश्वास ही इसमें कारण है। देवस्वरूप चिन्तन से स्वरूपभान भक्तिपूर्वक अरिहन्त देव और सिद्ध परमात्मा के स्वरूप पर चिन्तन किया जाता है, तब साधक - आत्मा को अपने विस्मत या भ्रान्त स्वरूप का भान हो जाता है । एक गड़रिये द्वारा पाला हुआ शेर का बच्चा अपने को भेड़ का बच्चा समझने लगा, किन्तु एक दिन वन में शेर को देखा तो उसका भेड़पन भाग गया, उसे अपने वास्तविक स्वरूप का भान हो आया । इसी प्रकार अनादिकालीन मोह-माया के गाढ़ अन्धकार के कारण आत्मा अपने स्वरूप का मान भूला हुआ है, परन्तु ज्यों ही आत्मस्वरूप तेजोमय सूर्य अरिहन्त देव या सिद्ध प्रभु का चिन्तन होता है तो व्यक्ति को अपने स्वरूप का भान हो जाता है । नामस्मरण से आध्यात्मिक विकास देवाधिदेव अरिहन्त भगवान् के अनन्त गुण होने से अनन्त नाम हो सकते हैं ! व्यक्ति आराध्यदेव का जिस नाम से बार-बार स्मरण करता है, उनके वैसे ही गुण उसमें आते जाते हैं और अन्त में वह उनके जैसा ही बन जाता है। गीता में कहा है – 'यो यच्छ्रद्धः स एव सः जो जिस पर श्रद्धा रखता है, वह वैसा ही हो जाता है।' अतः भगवान् के शुभ नाम १ 'ईलिका भ्रमरी जाता ध्यायन्ती भ्रमरी यथा ।' २ अजकुलगत केहरी लहेरे, निजपद सिंह निहाल । तिम प्रभु भक्ते भवी लहेरे, आतम शक्ति संभाल ॥ ३ भगवद्गीता, अध्याय १८ - अजित जिन स्तवन - उपा० देवचन्द्र जी -----
SR No.002475
Book TitleJain Tattva Kalika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1982
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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