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________________ सिद्धदेव स्वरूप : १११ लगेगा। निष्कर्ष यह है कि ध्येयानुसार ध्याता भी उसी रूप में परिवर्तित हो जाएगा।' परमात्मदेव को नमन, गणगान, गणस्मरण या नामस्मरण आदि भावविशुद्धि, आत्मशुद्धि, पवित्रभावना एवं आदर्श में स्थिरता करने के लिए किये जाते हैं। आदर्श या आराध्यदेव की आराधना, उपासना या तदनुसार भावना जागृत रखी जाए, निष्क्रिय न बैठकर निरन्तर ध्येय प्राप्ति के लिए आदर्श से प्रेरणा प्राप्त की जाए, तो परमपद प्राप्त होते या जीवन का कल्याण होते देर नहीं लगती। यह निर्विवाद है कि ध्यान का विषय जैसा होगा, मन पर उनका असर भी वैसा ही पड़ेगा। जैसा ध्येय होता है, वैसे ही गुण प्रायः उस ध्याता में प्रकट होने लगते हैं। जैसे-किसी विषय-भोगी का ध्येय एक युवती होती है, तो फिर वह विषयी आत्मा उस ध्येय के प्रभाव से उस युवती से विषय वासना सेवन करने के उत्कट भावों में लीन रहने लगता है। इतना ही नहीं, किन्तु वह अपनी वासनापूर्ति के लिए अनेक प्रकार की योग्य-अयोग्य क्रियाओं में प्रवृत्त होने लगता है। इसी प्रकार जिस आत्मा का ध्येय वीतरागदेव होते हैं; उस आत्मा के आत्मप्रदेश राग-द्वष के भावों से हटकर समताभाव में आने लगते हैं। फिर वह आत्मा वीतराग पद प्राप्त करने की चेष्टाएँ करने लग जाता है। . जिस प्रकार विषयी आत्मा विषयपूर्ति करने की चेष्टा में लगा रहता है, उसी प्रकार वीतरागप्रभु को ध्येय बनाने वाला ध्याता भी वीतरागपद की प्राप्ति के लिए तप और संयम तथा सम्यग्ज्ञान-दर्शन-चारित्र, उत्तम ध्यान और समाधि में चित्तवृत्ति लगाने की चेष्टा करता रहता है। उसके आत्मप्रदेशों से फिर कर्मवर्गणाएँ स्वतः ही पृथक् होने लगती हैं। ___ जिस प्रकार मिट्टी की बनी हुई पुरानी दीवार की मरम्मत न करने पर उसके मिट्टी के दल अपने आप गिरने लगते हैं, इसी प्रकार आत्मप्रदेशों में ध्येयानुसार वीतरागता (समता) का भाव धारण करने से राग-द्वषादिजनित पुरातन कर्मवर्गणाएँ भी स्वतः दूर होने लगती हैं। जिस प्रकार पुष्प या जल का ध्यान करने से आत्मा में एक प्रकार की शीतलता-सी उत्पन्न हो जाती है, उसी प्रकार श्री जिनेन्द्रदेव का ध्यान १ 'यद् ध्यायति, तद् भवति' -एक लोकोक्ति
SR No.002475
Book TitleJain Tattva Kalika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1982
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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