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११० : जैन तत्त्वकलिका
तो मनुष्य के अपने सामर्थ्य पर निर्भर है कि वह अपने मन-वचन-काय को वीतराग देव रूपी ध्येय या आदर्श के सन्मुख करे, तदनुसार अपने जीवन को ढाले। मनुष्य अपने ही पुरुषार्थ से अपने में परमात्मत्व जगा सकता है। दूसरी कोई ईश्वरीय शक्ति या परमात्मा उसे हाथ पकड़कर प्रत्यक्ष रूप से परमात्मा नहीं बना सकती। जैसे—सूर्य स्वयं प्रकाशित होता है, किन्तु उसका प्रकाश लेना या न लेना मनष्य की अपनी इच्छा पर निर्भर है, उसका प्रकाश लेने वाले को लाभ है, न लेने वाले की स्वास्थ्य हानि है, उसी प्रकार वीतराग देवरूपी सूर्य अनन्तज्ञानादि से प्रकाशमान हैं, उनके सदुपदेश भी प्रकाशित हैं। यह व्यक्ति की इच्छा पर निर्भर है कि वह वीतराग प्रभु का ज्ञानादि प्रकाश ग्रहण करे या न करे। अगर व्यक्ति वीतराग देवों से समतादि गुणों की प्रेरणा लेता है, उनके सदुपदेशों का प्रकाश लेता है तो उससे परमात्मपद-प्राप्ति तक का लाभ है, किन्तु न लेने वाले की बहुत बड़ी आत्मिक हानि है। ध्येय के अनुसार ध्याता है
अब प्रश्न यह है कि वीतराग देव को आदर्श या ध्येय मानकर उन्हें वन्दन-नमन करने, उनके गुण स्मरण करने या उनकी उपासना करने से कोई व्यक्ति कैसे आदर्शपद-परमात्म-पद तक पहुँच सकता है ? .
____ इसका समाधान यह है, भले ही वीतराग प्रभु हमारे लिए कुछ करते-कराते नहीं, न ही मोक्ष-स्वर्गादि कुछ देते हैं, फिर भी वे सर्वोत्तम गणीजन हैं, उन्हें वन्दन-नमन करने, उनकी उपासना-भक्ति करने या उनके गुणस्मरण करने से व्यक्ति अवश्य ही उन आराध्यदेवों के गुणों की ओर आकृष्ट होता है; स्वयं वैसा बनने की इच्छा करता है। फलतः धीरे-धीरे अपने उपास्य के आदर्शों को जीवन में उतारने लगता है। मनुष्य का हृदय यदि कल्याणकामी हो, परमात्मदेव के अभिमुख हो, उनकी भक्ति और शरण में लीन हो, उनके ही गणस्मरण से सत्त्वसंशुद्ध और वीतरागत्व-सम्मुख बनता जाता हो तो एक दिन उसकी अपूर्णता पूर्णता में परिणत हो सकती है। अपने ही प्रबल पुरुषार्थ-मोक्षमार्ग पर चलने के प्रयत्न से वह उस पूर्णत्व को प्राप्त कर सकता है । जब परमशुभ्र, परमोज्ज्वल परमात्मतत्त्व के प्रति एकाग्र ध्यान का बल परिपक्व हो जाएगा, तब वह ध्याता के हृदयकपाटों को खोल देगा। उसके हृदय पर ऐसी प्रतिक्रिया होगी कि उसकी राग-द्वष-मोह की ग्रन्थियाँ टूटती जाएंगी, ध्येयतत्त्व की शुद्धता का प्रकाश उस (ध्याता) पर पड़ने