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सिद्धदेव स्वरूप : १०६
नमस्कार करने, उनकी भक्ति, उपासना-आराधना करने की क्या आवश्यकता है ?
इसका समाधान यह है कि निश्चयनय अथवा आत्मा के शुद्ध स्वरूप की दृष्टि से यह बात यथार्थ है कि सभी आत्माएँ अपने शुद्धरूप में ज्ञानादि से प्रकाशमान हैं, किन्तु उनके आत्मप्रदेशों पर विभिन्न कर्मों (कर्म संस्कारों) का न्यूनाधिक रूप में आवरण पड़ा हुआ है, इस कारण उनके ज्ञान दर्शन आदि आच्छादित हो रहे हैं । उन विभिन्न कर्मवर्गणाओं को दूर करने के लिए उन कर्मरहित शुद्ध आत्माओं (परमात्मदेवों) को आदर्श मानकर उनका ध्यान, स्मरण, गुणगान, भक्ति-स्तुति, उपासना-आराधना आदि विविध अनुष्ठान किये जाते हैं ।
यही कारण है कि जैनदर्शन ने संसार की समस्त आत्माओं को तीन कक्षाओं में वर्गीकत किया है
(१) बहिरात्मा,
(२) अन्तरात्मा और (३) परमात्मा । बहिरात्मा के समक्ष देह ही सब कुछ होता है । उस देह में विराजमान चैतन्यमय आत्मा का अस्तित्व उसे ज्ञात नहीं होता । अन्तरात्मा की कक्षा में यह सत्य उपलब्ध हो जाता है कि जैसे दूध में मक्खन व्याप्त होता है, वैसे ही शरीर में चैतन्यमय सत्ता - आत्मा व्याप्त है । तीसरी कक्षा परमात्मा की है । इसमें चैतन्यमय आत्मा पर देह और देह सम्बन्धों (परभावों - विभावों) के कारण आई हुई कर्मरज दूर हो जाती है । आत्मा राग-द्वेष मोह कषाय आदि से रहित होकर परमात्मा के रूप में प्रकट हो
जाता है ।
अतः परमात्मा के सिवाय शेष दोनों कक्षाओं की आत्माएँ परमात्मा को अपना ध्येय या आदर्श मानकर उनका नमन-वन्दन, भक्ति-उपासना गुणस्मरण आदि करके अपने में वीतरागता, समता आदि गुणों को प्रतिष्ठित कर सकती हैं, उस परमदेव की आराधना - उपासना करके अपने में धर्म का तेज प्रकट कर सकती है । उत्तरोत्तर आत्म-विकास करते हुए धर्मपालन की चरमसीमा तक पहुँच सकती हैं ।
वीतरागदेव का ज्ञानादि प्रकाश ग्रहण करने की क्या आवश्यकता ?
उपर्युक्त तथ्यों के अनुशीलन से यह स्पष्ट हो जाता है कि औपचारिक भक्ति के गाने-बजाने से, अलंकार आदि चढ़ाने से अथवा मिठाई की थालियाँ भरकर भोग चढ़ाने से तथा इसके विपरीत गायन-वादन या मिष्टान्न अर्पण न करने से वीतरागदेव न तो प्रसन्न होते हैं और न अप्रसन्न । यह