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१०८ : जैन तत्त्वकलिका
है कि पूर्ण शुद्ध, निरंजन-निराकार, सर्वकर्मरहित, परम कृतार्थ वीतराग ईश्वर भला जगत् का कर्ता-धर्ता-हर्ता बनने के लिए पुनः कर्मबल से घूमते हुए संसार चक्र में क्यों लौटकर आएँगे? जिस संसार चक्र को वे तोड़ चुके हैं, जन्म-मरण से रहित हो चुके हैं, ऐसे कृतार्थ सिद्ध परमात्मा में राग-द्वेषयुक्त संसार-कत्त त्व कैसे सम्भव हो सकता है ? फिर भी अगर ईश्वर को जगत्कर्ता माना जाएगा तो उस पर पक्षपात, असामर्थ्य, राग-द्वोष, अन्याय आदि कई दोष रूप आक्षेप आएँगे। अतः जैन दर्शन का स्पष्ट आघोष है कि पूर्ण शुद्ध निरंजन-निराकार वीतरागस्वरूप मुक्त परमात्मा न तो किसी पर प्रसन्न होते हैं और न अप्रसन्न । वे अपने आत्मस्वरूप में निमग्न हैं। प्रत्येक प्राणी के सुख-दुःख अपने-अपने कर्म संस्कार पर अवलम्बित हैं। यह चेतन-अचेतन रूप सारा जगत प्रकृति के नियम से संचालित है। यह जगत् प्रवाहरूप से अनादिअनन्त है । उसके कत्त त्व का भार वहन करने के लिए किसी परमात्म सत्ता को मानने और उसे जन्म देने की आवश्यकता नहीं।
इस प्रकार जैन दर्शन में परमात्मा का अस्वीकार नहीं है, किन्तु उसकी विश्वसृजनसत्ता का अस्वीकार है ।
जैनदर्शन एक ही सष्टिकर्ता ईश्वर को नहीं मानता, वह संसार की सभी आत्माओं में ईश्वरत्व मानता है। इस दृष्टि से वह प्रत्येक आत्मा के कत्त त्ववाद की योजना करता है। जैसा कि आचार्य हरिभद्रसूरि ने कहा है
पारमंश्वर्ययुक्तत्वात्, आत्मव मत ईश्वरः।
स च कर्तेति निर्दोष, कर्तृवादो व्यवस्थितः ॥' आत्मा परम ऐश्वर्य-युक्त है, अतः वही ईश्वर है। वह कर्ता (शुभाशुभ कर्मों का कर्ता) है । इस दृष्टि से जनदर्शन में कत्त ववाद व्यवस्थित है। एक शंका : समाधान
एक शंका यह उपस्थित होती है कि 'जैनदर्शन जब संसार की समस्त आत्माओं को ईश्वर मानता है, तब तो सभी आत्माएँ स्वयं अनन्त-ज्ञान दर्शनादि से प्रकाशमान हैं, फिर उन आत्माओं को खासकर मनुष्यों को अरिहन्तदेव या सिद्ध परमात्मा को स्मरण करने, उनका ध्यान करने, उनको
१ शास्त्रवार्ता समुच्चय, स्तबक ३, श्लोक १४