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________________ सिद्धदेव स्वरूप : १०७ प्रकार परमात्मा की उपासना का यह फल उपासक स्वयं अपने आध्यात्मिक प्रयत्न से ही प्राप्त करता है। यह निर्विवाद है कि वेश्या का संग करने से मनुष्य की दुर्गति होती है। यहाँ यह विचारणीय है कि दुर्गति में ले जाने वाला कौन है ? वेश्या को दुर्गति का भान भी नहीं और न वह या और कोई किसी को दुर्गति में ले जाने में समर्थ है। इसीलिए यह निःसंकोच कहा जा सकता है कि मनुष्य के मन की अशुभ वत्तियाँ हो दुर्गति में ले जाने वाली हैं। इसके विपरीत मनुष्य के मन की शुभ वृत्तियाँ उसे सुगति में ले जाने वाली हैं। अतः वीतराग प्रभु के स्मरण, चिन्तन, उपासन, आराधन (परमात्मा के मानसिक सत्संग) से मनःस्थित मोहरूपी कालुष्य का प्रक्षालन होता है, वत्तियाँ शुभ और आगे चलकर शुद्ध हो जाती हैं। ___इस प्रकार देवोपासना आदि से चित्तशुद्धि, मानसिक विकास और आत्मिक प्रसन्नता का जो लाभ प्राप्त होता है, वह भगवान् का दिया हुआ कहा जा सकता है, किन्तु केवल उपचार से; जैसा कि चतुर्विंशतिस्तव (लोगस्स) के पाठ में कहा गया है-'सिद्धा सिद्धि मम दिसंतु'-(सिद्धपरमात्मा) मुझे सिद्धि प्रदान करें। यह प्रार्थना केवल भक्तिप्रधान एवं औपचारिक है । वस्तुतः सिद्ध भगवान् किसी को सिद्धि देते-लेते नहीं, किन्तु शुभभावनाशील आत्मा द्वारा भगवत्स्मरण आदि से चित्तशुद्धि, राग-द्वेष कषाय वत्तियों पर विजय आदि से अन्ततोगत्वा सिद्धि-मुक्ति प्राप्त हो जाती है। ईश्वर कर्तृत्व या आत्म कर्तृत्व ? यदि परमात्मा के हाथ में सीधी तौर से किसी व्यक्ति को ज्ञानादि का प्रकाश देने का सामर्थ्य होता तो वह किसी के भी अन्तःकरण में अन्धकार न रहने देता। अधम और दुराचारी व्यक्तियों को भी सद्बुद्धिसम्पन्न और सदाचारी बना देता, प्रत्येक प्राणी को उसकी नीची भूमिका से उठाकर ऊपर की भूमिका पर चढ़ा देता, समग्र विश्व के जीवों को पूर्णतः प्रकाशमय और आनन्दमय बना देता। परन्तु वैदिक आदि धर्मों का यह मत है कि "ईश्वर जगत् का कर्ता, धर्ता और हर्ता है। उसी के हाथ में समस्त प्राणियों का जीवन-मरण है।" परन्तु जैनदर्शन इस बात से स्पष्ट इन्कार करता है। वह तक प्रस्तुत करता
SR No.002475
Book TitleJain Tattva Kalika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1982
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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