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१०६ : जैन तत्त्वकलिका
अवश्य ही वीतरागता के भाव एवं संस्कार जागृत होते हैं । वीतरागदेव का सान्निध्य पाने या सत्संग करने का अर्थ है— उनका नामस्मरण, भजन, स्तवन, नमन, गुणगान या गुणस्मरण करना ।
वीतराग देव के सान्निध्य से लाभ
वीतरागदेव के सान्निध्य का लाभ जितना - जितना अधिक लिया जाता है, वैसे-वैसे मन के भाव, उल्लास और शुद्धता बढ़ते जाते हैं । अर्थात्परमात्मदेव के सान्निध्यकर्ता का मोहावरण हटता जाता है, वासना झड़ती जाती है और वह अधिकाधिक सत्त्वसम्पन्न ( ज्ञानादियुक्त) होता जाता है । इस प्रकार उच्चदशारूढ़ होकर आत्मा महात्मा की भूमिका से आगे बढ़कर परमात्मपद की भूमिका में प्रविष्ट होता है । उक्त सान्निध्य के प्रबल अभ्यास से राग-द्व ेष की वृत्तियाँ स्वतः शान्त होने लगती हैं ।
जैसे - अग्नि के पास जाने वाले मनुष्य की ठंड अग्नि के सान्निध्य से स्वतः उड़ जाती है; अग्नि किसी को वह फल देने के लिए अपने पास नहीं बुलाती तथा प्रसन्न होकर वह फल देती भी नहीं; इसी प्रकार वीतराग परमात्मा के सान्निध्य एवं उपासना से उनके गुणस्मरण रूप प्रणिधान से रागादि दोषरूप ठंड स्वतः उड़ने लगती है; और सान्निध्यकर्त्ता व्यक्ति को आध्यात्मिक विकास के रूप में फल स्वतः मिलता जाता है ।
अतः प्रत्येक मुमुक्षु साधक को वीतराग देव (अरिहन्त - सिद्ध) की उपासना, गुणस्मरण, नमन-वन्दन आदि अवश्य करना चाहिए । उपास्य परमात्मा की उपासना से लाभ
परमात्मा वीतराग हैं, वे किसी पर रुष्ट या तुष्ट नहीं होते । अगर मनुष्य के द्वारा की गई स्तुति, या उपासना से अथवा भक्ति के उपचार से वीतराग प्रभु प्रसन्न होंगे, तो वह स्तुति उपासना या भक्ति न करने वाले पर वह अप्रसन्न भी होंगे, परन्तु वीतराग परमात्मा ऐसी प्रकृति के नहीं हैं । वीतराग प्रभु तो राग-द्व ेष रहित, पूर्णात्मा, पूर्णानन्द, विश्वम्भर हैं ।
उपास्य परमात्मा उपासक से किसी प्रकार की अपेक्षा नहीं रखते, वे कुछ भी नहीं चाहते; और न ही उपास्य परमात्मा की उपासना उपासक द्वारा की जाने से उपास्य परमात्मा को कुछ भी लाभ या उपकार होता है । उपासक सिर्फ अपनी आत्मा के उपकार के लिए ही उपास्य परमात्मा की उपासना करता है; तथा उपास्य परमात्मा के अवलम्बन से, उसके गुणों के एकाग्रतापूर्वक स्मरण से वह स्वयं स्व-चित्तशुद्धिरूपी फल प्राप्त करता है; उसकी भावना के विकास से उसका स्वतः आत्मविकास होता जाता है । इस