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सिद्धदेव स्वरूप : १०५
कलिकालसर्वज्ञ आचार्य हेमचन्द्र ने योगशास्त्र में बताया है कि 'वीतराग (रागरहित) का ध्यान (चिन्तन-मनन प्रणिधान) करने से मनुष्य स्वयं रागरहित होकर कर्मों से मुक्त बन जाता है और रागी (सराग) का आलम्बन लेने वाला मनुष्य काम, क्रोध, लोभ, मोह, हर्ष-शोक एवं राग द्वषादि विक्षेप या विक्षोभ पैदा करने वाली सरागता को प्राप्त करता है।'१
आत्मा स्फटिक के समान है। जैसे-स्फटिक के पास जैसे रंग का फूल रखा जाता है, वैसा ही रंग वह (स्फटिक) अपने में धारण कर लेता है, ठीक वैसे ही राग-द्वष के जैसे संयोग-संसर्ग आत्मा को मिलते हैं, वैसे ही संस्कार आत्मा में शीघ्र उत्पन्न हो जाते हैं, जिनसे मनुष्य रागी बनकर दुःख, अशान्ति आदि प्राप्त करता है। अतः सभी दुःखों के उत्पादक राग-द्वष को दूर करने के और वीतरागता प्राप्त करने के लिए राग-द्वोष रहित परमात्मा (अर्हन्त और सिद्ध) का पवित्र संसर्ग प्राप्त करना या अवलम्बन लेना, वैसे संसगे में रहना परम उपयोगी एवं आवश्यक है। वीतरागदेवों का स्वरूप परम निर्मल, शान्तिमय एवं वीतरागता युक्त है। रागद्वष का रंग या उसका तनिक-सा भी प्रभाव उनके स्वरूप में बिलकूल नहीं है। अतः उनका ध्यान करने-चिन्तन-मनन करने तथा उनका अवलम्बन लेने से आत्मा में वीतराग-भाव का संचार होता है।
सदा से ही शिक्षा के क्षेत्र में विद्यार्थियों के लिए महापुरुषों के जीवन चरित्र पढ़ने और मनन करने का जो निर्देश किया जाता रहा है, उसके पीछे भी शिक्षा विशारदों का यही अभिप्राय रहा है कि यदि विद्यार्थी महापुरुषों के जीवन-चरित्र का पठन-मनन करेंगे तो उनके जीवन में महापुरुष बनने की प्रेरणा जगेगी और वे भी एक दिन महापुरुष बन सकेंगे। - यह तो सर्वविदित है कि एक रूपवती रमणी के संसर्ग से साधारण मनुष्य के मन में एक विलक्षण प्रकार का भाव उत्पन्न होता है। पुत्र या मित्र को देखने और मिलने पर वात्सल्य या स्नेह जागृत होता है और एक समभावी साधु के दर्शन से हृदय में शान्तिपूर्ण आल्हाद का अनुभव होता है ।
सज्जन का सान्निध्य और संग सुसंस्कार का और दुर्जन का सान्निध्य और संग कुसंस्कार का भाव पैदा करता है। इसलिए यह कहावत प्रसिद्ध है- 'जैसा संग वैसा रंग' ।
जब वीतरागदेव का सान्निध्य प्राप्त किया जाता है, तब हृदय में १ वीतरागो विमुच्येत वीतरागं विचिन्तयन् ।
रागिणं तु समालम्ब्य, रागी स्यात् क्षोभणादिकृत् ॥-योगशास्त्र प्र० ६, श्लोक १३