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१०४ : जैन तत्त्वकलिका
हाथ के शरीर का त्यागकर सिद्ध हुए हैं, सिद्धावस्था में उनकी अवगाहना ४ हाथ और १६ अंगुल की होती है। जो जीव दो हाथ की अवगाहना वाले शरीर को त्यागकर सिद्ध हुए हैं, उनकी अवगाहना सिद्धावस्था में १ हाथ और ८ अंगुल की होती है।
देवतत्त्व कैसा, क्यों और कैसे माना जाए? __'देव' तत्त्व के स्वरूप और लक्षण के विषय में विस्तृत रूप से विश्लेषण किया जा चुका है। अरिहंत जीवन्मुक्त रूप में और सिद्ध, विदेहमुक्त रूप में आत्मविकास की पूर्ण अवस्था पर पहुँचे हुए हैं। अतः पूर्ण रूप से पूज्य होने के कारण ये दोनों देवत्व की कोटि में गिने जाते हैं।
देवकोटि के इन दोनों आराध्य तत्त्वों का यथार्थ स्वरूप जान लेने पर व्यक्ति सरागी और आत्मकल्याण के लिए अप्रेरक व्यक्ति या देव को देव नहीं मानकर परम आदर्श रूप अनुकरणीय वीतराग व्यक्ति (देवाधिदेव) को ही देव मानेगा।
इतना जान लेने पर भी देवतत्त्व के विषय में कुछ बातें और जाननी शेष रह जाती हैं। देवतत्त्व को मानने से लाभ
देवकोटि में जिन दो प्रकार के देवों का वर्णन किया है, उनमें से सिद्ध परमात्मा तो निरञ्जन, अरूपी एवं केवल आत्मस्वरूप होने से दिखाई ही ' नहीं देते; किन्तु अरिहन्त (तीर्थंकर) देव साकार एवं सदेह होते हुए भी वर्तमान काल में भरतक्षेत्र में दृष्टिगोचर नहीं हैं, अतः इन दोनों कोटि के देवों को क्यों माना जाए.? उनको मानने या पूजने से, उनकी भक्ति करने से क्या-क्या लाभ हैं ? इन सब विषयों पर विचार करना अत्यावश्यक है।
सिद्ध परमात्मा. या अरिहन्तदेव चाहे हमें चर्मचक्ष ओं से न दिखाई दें, फिर भी यदि उनके स्वरूप का अपने स्वच्छ अन्तःकरण में चिन्तन किया जाय, उनका मानसिक रूप से सान्निध्य या सन्निकटत्व प्राप्त किया जाए तो मनुष्य को दृष्टिविशुद्धि, आत्मबल एवं वीतरागता की प्रेरणा आदि अनेकों लाभ हैं और ये लाभ आध्यात्मिक विकास की दष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं।
जिन्होंने पूर्ण परमात्म पद प्राप्त किया है, वह वीतराग देव सदेव जिस मनुष्य के आदर्श और अनुकरणीय हैं; उनकी वीतरागता के सम्बन्ध में विचार चिन्तन करने पर वह व्यक्ति भी वीतरागता की प्राप्ति कर सकता है। ऐसो प्रतीति और विश्वास उसमें पैदा हो जाता है।