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सिद्धदेव स्वरूप : १०३
(१३) नपुंसकलिंगी एक समय में १० सिद्ध हो सकते हैं । पूर्वभवाश्रित सिद्ध - पहली, दूसरो और तीसरी नरकभूमि से निकल कर आने वाले जीव एक समय में १० सिद्ध होते हैं । चौथो नरकभूमि से निकले हुए ४ सिद्ध होते हैं । पृथ्वोकाय और अप्काय से निकले हुए ४ सिद्ध होते हैं । पंचेन्द्रिय गर्भज तिर्यञ्च और तिर्यञ्ची की पर्याय से तथा मनुष्य की पर्याय से निकलकर मनुष्य बने हुए १० जीव सिद्ध होते हैं। मनुष्यनी से आए हुए २० सिद्ध होते हैं ।
भवनपति, वाणव्यन्तर और ज्योतिष्क देवों से आए हुए २० सिद्ध होते हैं । वैमानिक देवों से आये हुए १०८ सिद्ध होते हैं और वैमानिक देवियों से आये हुए २० जीव सिद्ध होते हैं ।
क्षेत्राश्रित सिद्ध - ऊर्ध्वलोक में ४, १ अधोलोक में २० और मध्यलोक में १०८ सिद्ध होते हैं । समुद्र में २, नदी आदि र सरोवरों में ३, प्रत्येक विजय में अलग-अलग २० सिद्ध हों (तो भी एक समय में १०८ से अधिक जीव सिद्ध नहीं हो सकते), मेरुपर्वत के भद्रशाल वन, नन्दनवन और सोमनसवन में ४, पाण्डुकवन में २, अकर्मभूमि के क्षेत्रों में १०, कर्मभूमि के क्षेत्रों में १०८; प्रथम, द्वितीय, पंचम तथा छठे आरे में १० और तीसरे - चौथे आरे में १०८ जीव सिद्ध होते हैं । ३
कार्मण वर्गणा के पुद्गलों के
अवगाहनाश्रित सिद्ध - जघन्य दो हाथ की अवगाहना वाले एक समय में ४ सिद्ध होते हैं, मध्यम अवगाहना वाले १०८ और उत्कृष्ट ५०० धनुष ' की अवगाहना वाले एक समय में २ जीव सिद्ध होते हैं । तात्पर्य यह है कि संसार - अवस्था में साथ आत्मा के प्रदेश, क्षीर-नीर की तरह मिले रहते हैं । सिद्ध-अवस्था प्राप्त होने पर कर्मप्रदेश भिन्न हो जाते हैं और केवल आत्मप्रदेश ही रह जाते हैं और वे सघन हो जाते हैं । इस कारण अन्तिम शरीर से तीसरे भाग कम, आत्मप्रदेशों को अवगाहना सिद्धदशा में रह जाती है । उदाहरणार्थ५०० धनुष की अवगाहना वाले शरीर को त्यागकर जो जीव सिद्ध हुआ है, उसकी अवगाहना वहाँ ३३३ धनुष और ३२ अंगुल की होगी । जो जीव सात
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उत्तराध्ययन, अध्ययन ३६, गाथा ५४
समुद्र, नदी, अकर्मभूमि के क्षेत्र, पर्वत आदि स्थानों में कोई हरण करके जाए तो वहाँ वह जीव केवलज्ञान प्राप्त करके सिद्ध होता है, अन्यथा नहीं ।
यह संख्या भी सर्वत्र एक समय में अधिक से अधिक सिद्ध होने वालों की है । उत्तराध्ययन, अध्ययन ३६, गाथा ५३