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१०२ : जैन तत्वकलिका
(१५) अनेकसिद्ध-एक समय में दो, तीन आदि से लेकर १०८ तक जो सिद्ध हों, वे अनेक सिद्ध कहलाते हैं।
__ जैन धर्म वेषपूजक या क्रियाकाण्डपूजक नहीं है, वह व्यक्तिपूजक भी नहीं है; किन्तु गुणपूजक हैं । उसका यह दावा नहीं है कि उसकी ही मान्यता, क्रियाकाण्ड, वेष आदि वाले ही मुक्त (सिद्ध) होते हैं, हुए हैं या हो सकते हैं। जैन धर्म की मान्यता है कि मुक्ति पर किसी का एकाधिकार (Monopoly) नहीं है। जैन धर्म में जहाँ कहीं भी व्यक्तिपूजा को स्थान मिला भी है, वहाँ वह व्यक्ति में अवस्थित आदरास्पद गुणों को ध्यान में रखकर ही है।
जैन धर्म का यह स्पष्ट आघोष है कि संसार का कोई भी मनुष्य, भले ही वह किसी भी जाति, धर्म-सम्प्रदाय, देश, वेष और रूप का हो, वीतरागता आदि आध्यात्मिक गुणों का विकास करके सिद्ध, बुद्ध और मुक्त परमात्मा बन सकता है।
विभिन्न अपेक्षाओं से सिद्धों की गणना शास्त्र में किस अपेक्षा से कितने सिद्ध होते हैं ? इसकी गणना दी गई है।
(१) तीर्थ की विद्यमानता में एक समय में १०८ तक सिद्ध होते हैं। (२) तीर्थ का विच्छेद होने पर एक समय में १० सिद्ध होते हैं। ' (३) तीर्थंकर एक समय में एक साथ बीस सिद्ध हो सकते हैं।
(४) अतीर्थंकर (सामान्य केवली) एक समय में १०८ सिद्ध हो सकते हैं।
(५) स्वयंबुद्ध एक समय में १०८ सिद्ध हो सकते हैं। (६) प्रत्येक बुद्ध एक समय में ६ सिद्ध हो सकते हैं। (७) बुद्ध-बोधित एक समय में १०८ तक सिद्ध हो सकते हैं । (८) स्वलिंगी एक समय में १०८ सिद्ध हो सकते हैं।' (९) अन्यलिंगी एक समय में १० सिद्ध हो सकते हैं। (१०) गृहिलिंगी एक समय में ४ सिद्ध हो सकते हैं। (११) स्त्रीलिंगी एक समय में २० सिद्ध हो सकते हैं। (१२) पुरुषलिंगी एक समय में १०८ सिद्ध हो सकते हैं।
१ उत्तराध्ययन, अध्ययन ३६ गाथा ५१-५२ २ यह जो गणना बतलाई है, वह सर्वत्र एक समय में अधिक से अधिक सिद्ध होने
वालों की है।