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सिद्धदेव स्वरूप : १०१
विच्छेद हो जाने के बाद सिद्ध होते हैं; अथवा तीर्थ (जैन धर्म संघ ) का आश्रय लिए बिना ही स्वतंत्र रूप से सिद्ध होते हैं ।
(५) स्वयं बुद्धसिद्ध - जातिस्मरण आदि ज्ञान से अपने पूर्वभवों को जानकर गुरु के बिना स्वयं प्रतिबुद्ध होकर दीक्षा धारण करके जो सिद्ध-मुक्त होते हैं ।
(६) प्रत्येक बुद्धसिद्ध - जो वृक्ष, वृषभ (बैल), श्मशान, मेघ, वियोग या रोग आदि का निमित्त पाकर अनित्य आदि भावना से प्रेरित ( प्रतिबुद्ध) होकर स्वयं दीक्षा लेकर जो सिद्ध हुए हों । जैसे - करकण्डु राजा बैल को देखकर प्रतिबुद्ध हुए, स्वयं दीक्षा ली और मुक्त हुए थे 1
(७) बुद्धबोधितसिद्ध - आचार्य आदि से बोध प्राप्त करके दीक्षित होकर जो सिद्ध होते हैं ।
(८) स्त्रीलिंगसिद्ध - वेद-विकार का क्षय करके स्त्री- शरीर से वीतरागता प्राप्त करके जो सिद्ध-मुक्त होते हैं । जैसे - मरुदेवी माता ने हाथी के हौदे पर बैठे मोहादि विकारों को निर्मूल कर दिया था; और वहीं वीतरागता प्राप्त करके मुक्त (सिद्ध) हो गई थी ।
(e) पुरुषलिंगसिद्ध - जो पुरुष - शरीर से वीतरागता प्राप्त करके सिद्धबुद्ध-मुक्त हो गए हैं।
(१०) नपुंसकलिंगसिद्ध - जो नपुंसक शरीर से सिद्ध होते हैं । (११) स्वलिंगसिद्ध - रजोहरण मुखवस्त्रिका आदि स्वलिंग (जैनसम्प्रदाय का साधुवेष ) धारण करके सिद्ध हुए हों । '
(१२) अन्यलिंगसिद्ध - अन्य सम्प्रदाय के लिंग - वेष में जो सिद्धमुक्त हुए हों ।
(१३) गृहिलिंग सिद्ध - गृहस्थ वेष में धर्माचरण करते-करते परिणामविशुद्धि हो जाने पर केवलज्ञान एवं वीतरागता प्राप्त हो जाने पर जो मुक्त हो ।
(१४) एकसिद्ध - जो व्यक्ति एक समय में अकेला ही सिद्ध-मुक्त
हुआ हो ।
१ उत्तराध्ययन, अध्ययन २३, गाथा ३३, भावविजयगणिकृत टीकाज्ञानाद्देव मुक्तिसाधनम्, न तु लिंगम् । ''''
२ ....मोक्षप्राप्ति न वेषप्राधान्यं किन्तु समभाव एव निर्वृत्तिहेतुः । -सम्बोधसत्तरी, टीका गुणविजय वाचक
३ उत्तराध्ययन, अध्ययन ३६, गाथा ४६