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१०० : जैन तत्त्वकलिका
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हो सकते हैं और अन्य सम्प्रदाय वाले अन्यलिंगी साधु भी मुक्त हो सकते हैं । परन्तु इन सबके लिए एक ही शर्त है, वह है- वीतरागता की, रागद्व ेष के विजय की । जिसने भी राग-द्व ेष को जीता, मोह को मारा वह जैनधर्म के अनुसार सिद्ध (मुक्त) परमात्मा हो सकता है । समदर्शी आचार्य हरिभद्र ने इसी सिद्धान्त का समर्थन किया हैचाहे श्वेताम्बर हो या दिगम्बर, बौद्ध हो अथवा अन्य कोई हो, यदि समभाव ( वीतरागभाव) से उसकी आत्मा भावित है तो वह अवश्य ही (निःसन्देह ) मोक्ष प्राप्त करता है । "
वास्तव में वीतरागता अथवा समतायोग मानसिक या आन्तरिक धर्म है । जब किसी व्यक्ति में सच्ची वीतरागता प्रकट हो जाती है, तब उसका प्रभाव उसके विचार वाणी और व्यवहार पर पड़े बिना नहीं रहता । वीतरागता से मोक्ष प्राप्ति के लिए साधु धर्म (अनगारधर्म ) को यदि मान लें, तब भी ऐसा एकान्त नहीं है कि उसके बिना वीतरागता से मुक्ति की साधना शक्य न हो अथवा उसकी प्राप्ति न हो सके ।
नीचे हम आगम पाठ के अनुसार १५२ प्रकारों में से किसी भी प्रकार से सिद्ध मुक्त होने की जैनधर्म की उदार मान्यता दे रहे हैं
(१) तीर्थंकरसिद्ध - जो तीर्थंकर पद प्राप्त करके सिद्ध होते हैं । जैसे - वर्तमान चौबीसी के भगवान् ऋषभदेव से लेकर भगवान् महावीर तक सभी तीर्थंकर सिद्ध-मुक्त हो चुके हैं ।
(२) अतीर्थंकर सिद्ध - जो सामान्य केवली होकर या अर्हद्दशा प्राप्त करके सिद्ध होते हैं ।
(३) तीर्थसिद्ध - साधु-साध्वी श्रावक-श्राविका रूप चतुविध धमतीर्थ (जैनसंघ) से जो सिद्ध होते हैं ।
(४) अतीर्थसिद्ध - जो तीर्थ की स्थापना से पहले या तीर्थ का
१ सेयंबरो वा आसंबरो, वा बुद्धो व तहेव अन्नोवा ।
समभावभावियप्पा लहइ सुक्खं न संदेहो ||
२ १. तित्थसिद्धा, २ . अतित्थसिद्धा, ३. तित्थयरसिद्धा, ४.
- संबोधसत्तरी अतित्थयरसिद्धा,
५. सयंबुद्धसिद्धा, ६. पत्ते यबुद्ध सिद्धा, ७ बुद्धबोहियसिद्धा, ८ इत्थिलिंगसिद्धा, ६. पुरिसलिंगसिद्धा, १०. नपुंसकलिंगसिद्धा, ११. सलिंगसिद्धा १२. अन्नलिंगसिद्धा १३. गिहिलिंगसिद्धा, १४. एगसिद्धा, १५. अणेग सिद्धा ।
- नंदीसुत, केवलज्ञानप्रकरण, प्रज्ञापना, प्रथम प्रज्ञापनापद, सिद्ध प्रज्ञापना