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सिद्धदेव स्वरूप : ६६
इसका समाधान यह है कि गोत्रकर्म की वर्गणाएँ परमाणुरूप हैं; अतः वे पुद्गलजन्य होने से रूपी भाव को धारण करती हैं और जीव जब तक गोत्रकर्म से युक्त होता है, तब तक वह शरीरधारी अवश्य होता है । उस समय गोत्रकर्म द्वारा उस जीव को उच्च या नीच दशा की प्राप्ति होना गोत्रकर्म का फल माना जा सकता है, किन्तु सिद्ध अरूपी हैं, अमूर्तिक हैं और शरीर रहित हैं, ऐसी स्थिति में सिद्धों के साथ गोत्रकर्म का सद्भाव न होने से उनमें उच्च-नीच दशा की प्राप्ति कथमपि सम्भव नहीं है । केवल आस्तिकों या नास्तिकों द्वारा ही पूर्वोक्त क्रियाओं के करने से सिद्धों में गोत्रकर्म का सद्भाव नहीं माना जा सकता । अतः सिद्धपरमात्मा में अगुरुलघुत्व गुण ही मानना चाहिए, जो कि शुद्ध आत्मा का निज गुण है |
(८) पाँच प्रकार के अन्तरायकर्म का क्षय हो जाने से सिद्धों में उक्त प्रकार की अनन्त शक्ति प्रादुभूत हो गई । वे अनन्त शक्तिमान हो गए ।
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अनन्त ज्ञानदर्शन के द्वारा वे सब पदार्थों को हस्तामलकवत् यथावस्थित रूप से जानते और देखते हैं और वे अपने स्वरूप से कदापि स्खलित नहीं होते । इसीलिए उन्हें सच्चिदानन्दमय कहा जाता है । जो अक्षय आत्मिक सुख सिद्ध परमात्मा को प्राप्त होता है, वह सुख देवों या चक्रवर्ती आदि विशिष्ट मनुष्यों को बिलकुल प्राप्त नहीं है । क्योंकि आत्मिक सुख के समक्ष पौगलिक सुख कुछ भी नहीं है । जैसे सूर्य के प्रकाश के साथ दीपक आदि
प्रकाश की तुलना नहीं की जा सकती, उसी प्रकार सिद्धों के सुख के समक्ष अन्य सुख क्षुद्रतम प्रतीत होते हैं । इसीलिए उत्तराध्ययन में कहा है कि वे अरूप हैं, सघन हैं, (अनन्त) ज्ञान- दर्शनसम्पन्न हैं; जिसकी कोई उपमा नहीं है, ऐसा अतुल सुख उन्हें प्राप्त है ।
सिद्धों - मुक्तात्माओं के प्रकार
जैनदर्शन के अनुसार कोई भी मनुष्य, चाहे वह गृहस्थ हो अथवा साधु-संन्यासी हो, चाहे उसकी दार्शनिक मान्यताएँ या क्रियाकाण्ड जैनधर्म के अनुसार हों अथवा अन्य धर्म (तीर्थ) - सम्प्रदाय के अनुसार मुक्त (सिद्ध) हो सकता है ।
जैनधर्म मोक्षप्राप्ति में वेष या लिंग की किसी प्रकार की रोक नहीं
लगाता ।
जैन दर्शन के अनुसार स्त्री भी मुक्त हो सकती है, पुरुष भी और नपुंसक भी मुक्त हो सकता है। तीर्थंकर भी मुक्त हो सकते हैं और साधारण जन भी मुक्त हो सकते हैं । जैनधर्म के साम्प्रदायिक रूप वाले स्वलिंगी
साधु भी • मुक्त