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६८ : जैन तस्वकलिका
(३) दोनों प्रकार के वेदनीय कर्म के क्षय हो जाने से उन्हें अव्याबाध ( निराबाध) सुख की प्राप्ति हो गई, वे बाधा - पीड़ारहित हो गए; क्योंकि अनन्त सिद्धों के प्रदेश परस्पर सम्मिलित हो जाने पर भी उन्हें कोई बाधापीड़ा नहीं होती । सिद्धों के शुद्ध आत्मप्रदेशों का परस्पर सम्मिलित होना, अव्याबाधसुखोत्पादक होता है ।
(४) दो प्रकार के मोहनीय कर्म का क्षय हो जाने से उन्हें क्षायिक सम्यक्त्वरत्न की प्राप्ति हो गई, जिससे वे स्व स्वरूप में सतत रमण करते हैं । (५) चारों प्रकार के आयुष्यकर्म का क्षय हो जाने से वे अव्यय ( अजरअमर) हो गए । जब तक आयुष्यकर्म रहता है, तब तक आत्मा की बाल्य, यौवन, वार्द्धक्य, रोगित्व, नीरोगित्व आदि दशा की संभावना रहती है । जब आयुष्यकर्म के प्रदेश आत्मप्रदेशों से सर्वथा पृथक् हो जाते हैं, तब वह आत्मा अव्ययत्वगुण का धारक हो जाता है । आयुष्यकर्म स्थिति युक्त है । आयुष्यकर्म के प्रदेशों की स्थिति 'उत्कृष्ट ३३ सागरोपम होती है । यह कर्म स्थिति युक्त होने से जीव सादि - सान्त पद वाला होता है; किन्तु जब सिद्धों के आयुष्यकर्म का अभाव हो जाता है, तब वे सादि अनन्त पद को धारण करते हुए अव्ययत्व गुण के धारक भी होते हैं ।
(६) दो प्रकार के नामकर्म का क्षय हो जाने से वे अमूर्तिक हुए । नामकर्म के होने से शरीर, इन्द्रिय, अंगोपांग, जाति आदि की रचना होती है । नामकर्म वर्ण- गन्ध-रस स्पर्श-पुद्गलजन्य होता है । जब आयुष्य और नामकर्म का क्षय कर दिया तो सिद्ध भगवान् शरीरादि तथा वर्णादि से रहित हो गए । शरीर से रहित आत्मा अमूत्र्तिक और अरूपी होता है; क्योंकि आत्मा का निज गुण अमूर्तिक है ।
(७) गोत्रकर्म का क्षय हो जाने से सिद्ध भगवान् अगुरुलघुत्व-गुण से युक्त हो गए । जब गोत्रकर्म रहता है, तब उच्चगोत्र के कारण नाना प्रकार के गौरव (गुरुता) की प्राप्ति होती है और नीचगोत्र के कारण नाना प्रकार की लघुता (हीनता-तिरस्कार) का सामना करना पड़ता है । जब गोत्रकर्म ही क्षीण हो गया, तब गुरुता - लघुता ( मान-अपमान) ही नहीं रहे और सिद्ध भगवान् अगुरुलघुत्व गुण के धारक हो गए ।
यहाँ एक शंका होती है कि 'सिद्ध भगवान् भक्तों द्वारा उपास्य और पूज्य हैं, किन्तु जो नास्तिक हैं, वे तो सिद्ध भगवान् के अस्तित्व में ही शंका करते हैं, अतः नास्तिकों द्वारा वे उपास्य और पूज्य नहीं होते, ऐसी स्थिति में सिद्ध भगवान् के प्रति उच्चता - नीचता ( गुरुता - लघुता) का भाव आ जाने से उनमें गोत्रकर्म का सदभाव क्यों नहीं माना जाए ?”