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सिद्धदेव स्वरूप : ६७
(२७-२८-२९-३०-३१) सिद्ध भगवान् के अन्तरायकर्म की पाँचों प्रकृतियाँ-दानान्तराय, लाभान्तराय, भोगान्तराय, उपभोगान्तराय और वीर्यान्तराय-क्षय हो चुकीं, तब अन्तरायकर्म के सर्वथा नष्ट हो जाने से उक्त पाँचों अनन्त शक्तियाँ उनमें प्रादूर्भूत हो गई। इसी कारण से सिद्ध परमात्मा को अनन्तशक्तिमान् कहा जाता है ।
सिद्ध भगवान् को अनेक सिद्धों की अपेक्षा से अनादि-अनन्त कहा जाता है, किन्तु किसी एक मोक्षगत जीव की अपेक्षा से सिद्ध भगवान् को सादिअनन्त कहा जाता है, क्योंकि जिस काल में अमुक व्यक्ति मोक्ष पहुँचा है, उस काल की अपेक्षा से उस जीव की आदि तो है, परन्तु अपुनरावृत्ति होने से उसे 'अनन्त' कहा जाता है। अतः जो अनादि-अनन्तयुक्त सिद्ध पद है, उसमें पूर्वोक्त गुण सदा से चले आ रहे हैं, परन्तु जो सादि-अनन्त सिद्धपद है, उसमें उक्त गुण आठ कर्मों के क्षय हो जाने से प्रकट हो जाते हैं। जिस प्रकार सोना मलरहित हो जाने पर अपनी शुद्धता और चमक-दमक धारण करने लग जाता है, उसी प्रकार जब जीव सभी प्रकार के कर्ममल से रहित हो जाता है तब अपनी शुद्ध, निर्मल, अनन्तगुणरूप निजदशा को शाश्वत रूप से धारण कर लेता है।
पूर्वोक्त ३१ गुणों की अपेक्षा से पूर्वाचार्यों ने सिद्धों के संक्षेप में आठ गुण बताए हैं—वे इस प्रकार हैं-(१) अनन्तज्ञानत्व, (२) अनन्तदर्शनत्व, (३) अव्याबाधत्त्र, (४) क्षायिकसम्यक्त्व, (५) अव्ययत्व, (६) अरूपित्व, (७) अगुरुलघुत्व और (८) अनन्तवीर्यत्व ।
ये आठ गुण ज्ञानावरणीय आदि आठ कर्मों के क्षय होने पर उत्पन्न हुए हैं। जैसे
(१) पाँच प्रकार के ज्ञानावरणीय कर्म का क्षय हो जाने से सिद्ध भगवान् में अनन्त (केवल) ज्ञान प्रकट हो गया, जिससे वे सर्व द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव को जानते हैं।
(२) नौ प्रकार के दर्शनावरण कर्म का क्षय हो जाने से अनन्त (केवल) दर्शन-गुण प्रकट हुआ, जिससे वे सर्वद्रव्य-क्षेत्रादि को देखने (सामान्यरूप से जानने) लगे।
१ एगत्तण साईया अपज्जवसिया वि य । पुहुत्तण अणाईया अपज्जवसिया वि य ।
-उत्तराध्ययन, अध्ययन ३६, गाथा ६५