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६६ : जैन तत्वकलिका
() केवलदर्शनगत आवरण भी क्षीण हो चुका है। (१०) निद्रा (सुखपूर्वकशयन) रूप दर्शनावरण भी चला गया है।
(११) निद्रा-निद्रा (सुखपूर्वक शयन करने के पश्चात् दुःखपूर्वक जागृत अवस्था) रूप दशा भी जाती रही है।
(१२) प्रचला (बैठे-बैठे ही निद्रागत होने रूप) अवस्था भी उनकी नहीं रही। ___, (१३) प्रचला-प्रचला (पशु की तरह प्रायः चलते-चलते निद्राधीन हो जाने रूप) दशा भी समाप्त हो गई है।
(१४) स्त्याद्धि (अत्यन्त घोर निद्रा, जिसके उदय से वासुदेव का आधा बल प्राप्त हो जाए, ऐसी अत्यन्त भयंकर निद्रा) दशा भी सिद्ध परमात्मा की नहीं रही।।
इस प्रकार दर्शनावरणीय कर्म की सभी प्रकृतियों का क्षय होने के कारण सिद्ध भगवान् सर्वदर्शी बन जाते हैं।
(१५-१६) सिद्ध भगवान् के वेदनीय कर्म की दोनों प्रकृतियाँ-साता रूप प्रकृति और असाता रूप प्रकति-क्षीण हो चुकी हैं, इसलिए वे अक्षय आत्मिक सुख में मग्न हैं।
(१७-१८) मोहनीय कर्म की दोनों प्रकृतियों-दर्शन मोहनीय और चारित्र मोहनीय के क्षय हो जाने से सिद्ध परमात्मा क्षायिक सम्यक्त्व के धारक हो जाते हैं।
(१६-२०-२१-२२) आयुष्यकर्म की चारों प्रकृतियों-नरकायु, तिथंचायु मनुष्यायु और देवायु-के क्षय हो जाने से भगवान् निरायु हैं, अतएव उन्हें शाश्वत कहा जाता है, क्योंकि आयुष्यकर्म के कारण जीव की अशाश्वत दशाएँ होती हैं।
(२३-२४) गोत्रकर्म की दोनों प्रकृतियाँ-उच्चगोत्र और नीचगोत्रका भी अभाव हो चुका है। गोत्रकर्म के कारण जीव की उच्च-नीच-दशा होती रहती है। गोत्रकर्म के न रहने से सिद्ध भगवान् की उच्च-नीच दशा भी समाप्त हो गई।
(२५-२६) इसी प्रकार शुभनाम और अशुभनामरूप नामकर्म की जो दो प्रकृतियाँ हैं, वे भी समाप्त हो चुको हैं। सादि-सान्तरूप नामकर्म के क्षय हो जाने से सिद्ध भगवान् अनादि-अनन्तपदरूप नाम संज्ञा में स्थित हो गए हैं। अर्थात्-अपने अनन्त गुणों की अपेक्षा से सिद्ध परमात्मा अनन्त नाम कहलाते हैं।