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सम्पादकीय | ११
'कोsहं ? कथमिदं जातम् ? को वं कर्ताऽस्य विद्यते उपादानं किमस्तीह विचार: सोऽयमीदृशः ।।
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अर्थात् - मैं कौन हू ? यह ( शरीरादि) कैसे उत्पन्न हुआ ? इस (जगत्) कां कर्त्ता कौन है ? इसमें उपादान क्या है ? इस प्रकार का जो विचार हैं, वही (ब्रह्मज्ञान का मूल ) है | श्रीमद् राजचन्द्र के शब्दों में
हुँ पो छु ? क्याँ थी थयो ? शुं स्वरूप छे मारू खरू ? कोना सम्बन्धे वलगणा छे ? राखू के ए परिहरू ? २
इस प्रकार एक या दूसरे प्रकार से तत्त्वज्ञान की महत्ता सभी धर्मों और दर्शनों ने तथा मुमुक्षुओं स्वीकार की है ।
तत्त्व शब्द : विभिन्न अर्थों में 'तत्' शब्द से भाव अर्थ में 'त्व' प्रत्यय लग कर 'तत्त्व' शब्द बना है । जिसका अर्थ होता है - 'तस्य भावः तत्त्वम्' - उसका भाव तत्त्व है । तत्त्व का फलितार्थ हुआ
- 'वस्तु का स्वरूप' अथवा सारभूत या रहस्यमय वस्तु । लौकिक दृष्टि से भी तत्त्व शब्द वास्तविक स्थिति, यथार्थता, सारवस्तु या सारांश, अर्थ में प्रयुक्त होता है । दार्शनिक विचारकों ने प्रस्तुत अर्थ को स्वीकार करते हुए भी परमार्थ, द्रव्य स्वभाव, पर, अपर, ध्येय, शुद्ध और परम के लिए तत्त्व शब्द का प्रयोग किया है ।
विभिन्न दर्शनों में तत्त्व निरूपण प्रायः सभी दर्शनों ने अपनी-अपनी दृष्टि से तत्त्वों का निरूपण किया है । भौतिकवादी चार्वाक दर्शन ने भी १. पृथ्वी, २. जल ३. वायु और ४. अग्नि, ये चार तत्त्व माने हैं; उसने आकाश को नहीं माना, क्योंकि आकाश का ज्ञान प्रत्यक्ष से न होकर अनुमान से होता है। वैशेषिक दर्शन ने १. द्रव्य, २. गुण ३. कर्म, ४. सामान्य ५. विशेष ६. समवाय और ७ अभाव, इन सात पदार्थों को तत्त्व के रूप में स्वीकार किया है | न्यायदर्शन ने १. प्रमाण, २. प्रमेय, ३. संशय, ४. प्रयोजन, ५. दृष्टान्त; ६. सिद्धान्त, ७. अवयव, ८ तर्क 8. निर्णय १०. वाद, ११. जल्प, १२. वितण्डा १३. हेत्वाभास, १४. छल, १५. जाति और १६. निग्रहस्थान, इन सोलह पदार्थों को तत्त्व रूप में माना है । सांख्यदर्शन ने २५ तत्त्व माने हैं - १. प्रकृति, २. महत् ३. अहंकार ४-८. पाँच ज्ञानेन्द्रिय ६-१३. पाँच कर्मेन्द्रिय, १४-१८. पाँच तन्मात्राएँ, १६. मन, २०-२४ पंचमहाभूत और २५. पुरुष । योग दर्शन 'ईश्वर' नामक तत्त्व वो अधिक मानकर २६ तत्त्व मानता है । मीमांसादर्शन वेदविहित कर्म को ही सत् और तत्त्व
१ शंकराचार्य प्रश्नोत्तरी ।
२ अमूल्य तत्व विचार
३ तत्तं तह परमट्ठे दव्वसहावं तहेव परमपरं ।
धेयं सुद्धं परमं एयटा हुति अभिहाणा ।"
—बृहद्नयचक्र ४