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________________ १० | सम्पादकीय हम इन प्रश्नों के उत्तर पाने का प्रयत्न करता है । परन्तु उत्तर प्राप्ति का कार्य, जितना सोचते हैं, उतना आसान नहीं है । प्रश्नों का यथार्थ समाधान जिनोक्त तत्व ज्ञान से ही पहली बात तो यह है कि अल्पज्ञ जिज्ञासु स्वयं ही कुछ उत्तरों की कल्पना तो कर लेता है, लेकिन तर्क परम्परा ज्यों ही आगे बढ़ती है, कि मनुष्य स्वयं तर्क के झूले पर चढ़कर सोचने लगता है - ऐसा ही क्यों, ऐसा क्यों नहीं ? फलतः उसके द्वारा कल्पित उत्तरों में यथार्थता दृष्टिगोचर नहीं होती। उनमें एक प्रकार के विरोध और असंगति के दर्शन होते हैं । वह इन प्रश्नों के यथार्थ उत्तर पाने के लिए ऐसे यथार्थं महाज्ञानियों की ओर दृष्टि दौड़ाता है जिन्होंने स्वयं उत्तर पा लिया हो, जो निष्पक्ष एवं वीतराग होकर सबको अपने अनुभव देते हों। ऐसे महापुरुषों को जैन धर्मं में 'जिन' कहते हैं । उनके द्वारा बताए हुए तत्त्वों को जैन तत्त्व या जिनोक्ततत्त्व कहते हैं । हां पूर्वोक्त प्रश्नों की विकट अटवी में फंसे हुए व्यक्तियों को जैन (जिनोक्त) तत्व ही निकाल सकते हैं, क्योंकि उनमें पूर्ण वीतरागता और सर्वज्ञता का सम्बन्ध है । वे ही उक्त जिज्ञासु के मन में उठने वाले प्रश्नों का यथार्थ समाधान कर सकते हैं । तत्वज्ञान ही मनुष्य के मोक्ष विषयक पुरुषार्थ में सहायक होता है । तस्व की महत्ता इसलिए भारतीय दर्शन में तत्त्व के सम्बन्ध में गहराई से अनुशीलन - परिशीलन किया गया है। सभी का यह मन्तव्य है कि तत्वज्ञान से ही मोक्ष की प्राप्ति होती है. तत्वज्ञ ही मोक्ष प्राप्त कर सकता है । " वस्तुतः जिसे तत्त्व संवेदन अर्थात् तत्त्वों का निश्चयात्मक बोध हुआ हो, वही मोक्ष विषयक साधना यथार्थ रूप से कर सकता है। वैसे देखा जाए तो जीवन में तत्त्वों का महत्त्वपूर्ण स्थान है। जीवन और तत्त्व एक दूसरे से सम्बन्धित हैं । तत्त्व से जीवन को पृथक नहीं किया जा सकता, क्योंकि तत्त्व के अभाव में जीवन गतिशील नहीं हो सकता। जीवन में से तत्त्व को पृथक करने का अर्थ है - आत्मा के अस्तित्त्व से इन्कार होना । दर्शन के क्षेत्र में तत्त्व शब्द गम्भीर चिन्तन को लिए हुए है । दार्शनिक क्षेत्र में चिन्तन-मनन का प्रारम्भ तत्त्वज्ञान से ही होता है । "कि तत्त्वम्' ?' 'तत्त्व क्या है ?' यही तत्त्व जिज्ञासा दर्शन का मूल है । आद्य शंकराचार्य ने तत्त्वविचार से ही आत्मज्ञान का प्रारम्भ माना है । वे कहते हैं— १ जिणपण्णत्त तत्तं २ (क) तत्वज्ञानान्निश्रयसाधिगमः (ख) पंचविंशतितत्वज्ञो यत्रकुत्राश्रमे रतः । जटी मुण्डी शिखी वाऽपि मुच्यते नात्र संशयः ॥ - आवश्यक सूत्र -- न्यायदर्शन - सांख्यदर्शन
SR No.002475
Book TitleJain Tattva Kalika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1982
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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