________________
६४ : जैन तत्त्वकलिका
. जिस प्रकार एक कमरे में रखे हुए अनेक दीपकों का प्रकाश परस्पर मिल जाता है, फिर वह एकरूप से दष्टिगत होने लगता है। इसी प्रकार अनेक सिद्धों के आत्मप्रदेश परस्पर मिलकर एकरूप होकर स्थित हो जाते हैं।
जैसे घट, पट आदि की आकृति भिन्न-भिन्न होते हुए भी एक हो पुरुष के हृदय में ठहर जाती है, वैसे ही सिद्धों के प्रदेश भी परस्पर मिलकर रहते हैं।
जैसे-चक्षरिन्द्रियजन्य ज्ञान से नाना प्रकार के आकार वाले पदार्थ ज्ञानात्मा में एकरूप से निवास करते हैं, इसी प्रकार अजर, अमर, सिद्ध, बुद्ध, मुक्त इत्यादि नामों से युक्त सिद्ध भगवान् भी एकरूप से विराजमान हैं। मुक्ति : आत्मा की विशिष्ट पर्याय
__ साधारण लोग यह समझते हैं कि जैसे नरक एक विशेष भूभाग को तथा स्वर्ग एक स्थान विशेष को कहते हैं, वैसे ही मोक्ष भी किसी स्थान का नाम है, किन्तु वास्तव में मोक्ष कोई स्थान नहीं है, वह आत्मा की विशिष्ट पर्याय है । सर्वथा शुद्ध, बुद्ध, मुक्त और सिद्ध रूप आत्मा की अवस्था (पर्याय) मोक्ष कहलाती है । सिद्ध-आत्मा लोक के अग्रभाग में विराजमान होता है, इस कारण उसे सिद्धिगति स्थान कहते हैं; किन्तु ऐसा नहीं समझना चाहिए. कि जो जीव उस स्थान में रहते हैं, वे सभी सिद्ध हैं या उस स्थान को ही मोक्ष कहते हैं। वास्तव में कर्मों से रहित अवस्था मुक्ति कहलाती है और मुक्तात्मा लोकाग्र भाग में स्थित होते हैं। वास्तव में सिद्ध परमात्मा आत्मा के शुद्ध स्वरूप में स्थिर होते हैं, जिससे बढ़कर पवित्र या शुद्ध अवस्था इस जगत् में अन्य कोई नहीं है।
सिद्धों के गुण यों तो सिद्ध परमात्मा में अनन्तगुण होते हैं, तथापि ज्ञानावरणीय आदि आठ कर्मों के क्षय की अपेक्षा से उनमें ३१ गुण विशेषतया आविभूत हो जाते हैं। वस्तुतः आत्मा ज्ञानस्वरूप और अनन्तगुणों का समुदायरूप है; परन्तु कर्मजन्य उपाधिभेद से संसारी आत्माओं के वे गुण आवरणयुक्त हो रहे हैं ।
___ जैसे-सूर्यप्रकाश रूप होने पर भी बादलों के कारण उस पर आवरण आ जाता है उसका प्रकाशवानरूप हमें दिखाई नहीं देता । इसी प्रकार आत्मा भी प्रकाशमान है, उस पर आए हुए आवरण जब दूर हो जाते हैं, तब वह गुण समुदाय प्रकट हो जाता है, फिर उस पूर्ण शुद्ध आत्मा को